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________________ एवं चरिऊणं तवं जीवा इह-पारलोइयसुहाई। पार्वेति विसालाइं करेंति दुक्खक्खयं तह य ॥२६॥ एसो उ तवोमइओ धम्मो संखेवओ समक्खाओ। निसुणह एत्तो सुंदर ! धम्म पुण भावणामइयं ॥३०॥ सम्मं सम्मईसण-नाण-चरित्ताण भावणा जाओ।। वेरग्गभावणा वि य परमा तित्थयरभत्ती य ॥३०१॥ संसारजगुच्छणया कामविरागो सुसाहु-जिणसेवा। तित्थयरभासियस्स य धम्मस्स पभावणा तह य ॥३०२॥ मोक्खसहम्मि य राओ अणाययणवज्जणा य सुपसत्था। सइ अप्पणो य निदा गरहा य कहिंचि खलियस्स ॥३०३॥ एसो जिणेहि भणिओ अणंतनाणीहि भावणामइओ। धम्मो उ भीमभववणसुजलियावाणलब्भुओ ॥३०४॥ एवं चरित्वा तपो जीवा इह-पारलौकिकसुखानि । प्राप्नुवन्ति विशालानि कुर्वन्ति दुःखक्षयं तथा च ॥२६॥ एष तु तपोमयो धर्मः संक्षेपत: समाख्यातः। निशृणुत इतः सुन्दर ! धर्म पुनर्भावनामयम् ॥३०॥ सम्यक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणां भावना याः । वैराग्यभावनाऽपि च परमा तीर्थङ्करभक्तिश्च ॥३०१॥ संसारजुगुप्सनता कामविरागः सुसाधु-जिनसेवा । तीर्थङ्करभाषितस्य च धर्मस्य प्रभावना तथा च ।।३०२॥ मोक्षसुखे च रागोऽनायतनवर्जना च सुप्रशस्ता। सदा आत्मनश्च निन्दा गर्दा च कुत्रचित् स्खलितस्य ॥३०३॥ एष जिनैणितोऽनन्तज्ञानिभिर्भावनामयः । धर्मस्तु भीमभववनसुज्वलितदावानलभूतः ॥३०४॥ इस प्रकार के तपों का आचरण कर जीव इस लोक और परलोक के विशाल सुखों को पाते हैं और दुःखों का क्षय करते हैं । यह तपोमय धर्म संक्षेप से कहा । अब हे सुन्दर ! भावनामय धर्म को सुनो-सम्यग दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भावना, वैराग्य भावना, परमतीर्थकर भक्ति, संसार के प्रति घृणा, काम से विरक्ति, अच्छे साधु और जिनेन्द्र की सेवा, तीर्थंकरभाषित धर्म की प्रभावना, मोक्षसुख में राग, सुप्रशस्त बनायतन वर्जना, सदा कहीं-कहीं पर स्खलित होने वाले अपने आपकी निन्दा तथा गर्हा-यह अनन्तज्ञानवाले जीवों ने भावनामय धर्म कहा है। यह धर्म संसार रूपी भयंकर वन के लिए अच्छी तरह जलता हुआ दावानल है ॥२८६-३०४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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