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________________ चरियसंगहणिगाहाओ ] पावेइ य सुरलोयं तत्तो वि सुमणुसत्तणं धम्मो। तत्तो दुक्खविमोक्खं सासयसोक्खं लहुं मोक्खं ॥१६॥ तं कुणइ जाणमाणो जाणइ य सुणेइ जो उ मज्झत्थो । कुसलो य धम्मियाओ कहाउ सम्वन्नुभणियाओ॥१७॥ ता पढम धम्मगुणं पडुच्च चरियं अहं पवक्खामि । आराहगेयराणं गुणदोसविभावणं परमं ॥१८॥ नवपुव्वभवनिबद्ध' संवेगकरं च भव्वसत्ताणं। चरियं समराइच्चस्सऽवंतिरन्नो सुणह वोच्छं ॥१६॥ एत्थं बहुया उ भवा दोण्ह वि उवओगिणो न ते सव्वे । नवसु परोप्परजोगो जत्तो संखा इमा भणिया ॥२०॥ प्रापयति च सुरलोकं ततोऽपि सुमनुष्यत्वं धर्मः। ततो दुःखविमोक्षं शाश्वत-सौख्यं लघु मोक्षम् ॥१६॥ तं करोति जानन जानाति च शृणोति यस्तु मध्यस्थः । कुशलश्च धार्मिकाः कथाः सर्वज्ञभणिताः ॥१७॥ तस्मात् प्रथमं धर्मगुणं प्रतीत्याहं चरितं प्रवक्ष्यामि । आराधकेतराणां गुण-दोषविभावनं परमम् ॥१८॥ नवपूर्वभवनिबद्ध संवेगकरं च भव्यसत्त्वानाम् । चरितं समरादित्यस्य अवन्तिराजस्य शृणुत वक्ष्ये ॥१६॥ अत्र बहुकास्तु भवाः द्वयोरपि उपयोगिनो न ते सर्वे । नवसु परस्परयोगो यतः संख्या इयं भणिता ॥२०॥ लेकर जीव शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है। मोक्षावस्था में दुःख से छुटकारा मिल जाता है और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है ॥१६॥ जो व्यक्ति मध्यस्थ और पुण्यात्मा है वह धर्म के प्रभाव को जानता हुआ सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा को जानता है और सुनता है ॥१७॥ अतः पहले धर्म गुण की प्रतीति कराकर मैं चरित को कहूंगा। इसमें धर्म की आराधना करने वाले तथा न करने वाले व्यक्तियों के (क्रमशः) गुण और दोषों को दिखलाया जायेगा ॥१८॥ नौ पूर्वभवों की कथा जिसमें निबद्ध है, जो भव्यजीवों को उद्वेग उत्पन्न करने वाला है ऐसे उज्जयिनी के राजा समरादित्य का चरित कहूँगा, उसे सुनो ॥१६॥ यद्यपि समरादित्य के बहुत से भव हुए हैं, किन्तु उनमें दो ही उपयोगी हैं, सभी उपयोगी नहीं हैं । नवों (भवों) में आपस में सम्बन्ध है, अत: यहाँ नौ की संख्या कही गयी है ।।२०।। उन्हीं भगवान् समरादित्य ने गिरिषेण द्वारा किये हुए उपसर्ग को सहन करने के बाद केवलज्ञान प्राप्त कर वेलन्धर देव, राजा मुनिचन्द्र तथा नर्मदा प्रधान महारानियों को जिस प्रकार (कथा) १. नवपुब्वभवनिबद्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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