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[समराइच्चकहा
जह तेणेव भगवया गिरिसेणुवसग्गसहणपज्जते। संजायकेवलेणं सिट्ठ वेलंधरसुरस्स ॥२१॥ मुणिचंदस्स य रन्नो देवीण य नम्मयापहाणाणं ।
संखेवेण फुडत्थं अहमवितं संपवक्खामि ॥२२॥ भणियं य पुवायरिएहि
गुणसेण-अग्गिसम्मा सीहाऽऽणंदा य तह पिया-उत्ता। सिहि-जालिणि माइ-सुया धण-धणसिरिमो य पइ-भज्जा ॥२३॥ जय-विजया य सहोयर धरणो-लच्छी य तह पई-भज्जा। सेण-विसेणा पित्तिय-उत्ता जम्मम्मि सत्तमए ॥२४॥ गुणचंद-बाणमंतर समराइच्च गिरिसेण-पाणो उ । एक्कस्स तओ मोक्खो बीयस्स अणन्त संसारो॥२५॥ नगराइ-खिईपइटें जयउर कोसंबि सुसम्मनयरं च । कायंदी मायंदी चंपा ओज्झा य उज्जेणी ॥२६॥ यथा तेनैव भगवता गिरिसेनोपसर्ग सहनपर्यन्ते । संजातकेवलेन शिष्टं वेलंधरसुरस्य ॥२१॥ मुनिचन्द्रस्य च राज्ञः देवीनां च नर्मदाप्रधानानाम् ।
संक्षेपेण स्फुटार्थम् अहम पि तं संप्रवक्ष्यामि ॥२२।। भणितं च पूर्वाचार्यः
गुणसेन-अग्निशर्माणौ सिंहाऽनन्दौ च तथा पितृ-पुत्रौ । शिखि-जालिन्यौ मातृ-सुते धन-धनश्रियौ च पतिभार्ये ॥२३॥ जय-विजयौ च सहोदरौ धरणो लक्ष्मीश्च तथा पतिभायें । सेन-विसे नो पितृव्य-पुत्रौ जन्मनि सप्तमके ॥२४॥ गुणचन्द्र-वानव्यन्तरौ समरादित्यः गिरिसेनप्राणस्तु । एकस्य ततो मोक्षः द्वितीयस्य अनन्त संसारः ॥२५॥ नगरादि-क्षितिप्रतिष्ठम, जयपुर-कौशाम्बी सुशर्मनगरं च । काकन्दी माकन्दी चम्पा अयोध्या च उज्जयिनी ॥२६।।
कही थी, स्पष्ट अर्थ वाली उस कथा को मैं भी संक्षेप में कहूँगा ॥२१-२२॥ पूर्वाचार्यों ने कहा है-प्रथम भव में गुणसेन-अग्निशर्मा, द्वितीय भव में सिंह-आनन्द के रूप में पिता-पुत्र, तृतीय भव में शिखि और जालिनी के रूप में पुत्र और माता, चौथे भव में धन तथा धनश्री के रूप में पति-पत्नी, पाँचवें भव में जय-विजय के रूप में सहोदर भाई, छठे भव में धरण और लक्ष्मी के रूप में पति-पत्नी, सातवें भव में सेन और विसेन के रूप में चचेरे भाई, आठवें भव में गुणचन्द्र और वानव्यन्तर के रूप में तथा नवें भव में समरादित्य और गिरिसेन चाण्डाल के रूप में जन्म हुआ । अनन्तर पहले (जीव) समरादित्य को तो मोक्ष की प्राप्ति हो गयी और दूसरे (जीव) को अनन्त संसार की प्राप्ति हुई ॥२३-२५॥ क्षितिप्रतिष्ठित, जयपुर, कौशाम्बी, सुशर्मनगर, काकन्दी, माकन्द्री, चम्पा, अयोध्या
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