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________________ ३६५ पंचमो भवो] भयकायरचक्खू खोणगमणसत्ती कंठगयपाणो तुरियं तुरियं कोइ कुलउत्तओ। भणियं च तेण-अज्ज, परित्तायाहि परित्तायाहि, सरणागओ अज्जस्स। कुलउत्तएण भणियं-भद्द, अलं भएण, को मम पाणेसु धरतेसु भद्दस्स केसं पि उप्पाडेइ। घरिणोए मणियं --अज्जउत्त, मा एवं करेहि; कयाइ दोसयारी भवे । कुलउत्तएण भणियं-सुंदरि, अदोसयारी' किं सरणं पवज्जइ । ता कि एइणा । जो होउ, सो होउ; पडिवन्नो मए। भणिओ य एसो-'भर, उवविसाहिति । तेण भणियं अज्ज, कयंतहत्थि लंघियाणि विय मयकुलाणि सोयंति मे अंगाणि, भयाभिभूयइत्थियाहिययं विय थरहरंति मे ऊरू, परनिदाए विय सज्जणभारही न पसरइ मे गई, अत्थिजणुल्लावा विय पए पएखलंति चलणय, पेयनाहस्स विय देवस्स विजयवम्मणो आसन्नीहवंति निद्देसयारिणो ति । कुलउत्तएण भणियं--भद्द, अलं भएण । को मम पाणेस धरतेस भहस्स अंगलीए२ वि दसहस्सह त्ति। सा परिचय विसायंड उवविससु आवासंतरे । एत्थंतरम्मि समागया रायपुरिसा। भणियं च तेहि-अरे रे पावकम्म, चं । देवसासणमइक्क मिऊण अज्ज वि पाणे धारेसि। समापूरिताननो भयकातरचक्षुः क्षीणगमनशक्तिः कण्ठगतप्राणस्त्वरितं त्वरितं कोऽपि कुलपुत्रकः, भणितं तेन-आर्य ! परित्रायस्व, परित्रायस्व, शरणागत आर्यस्य । कुलपुत्रकेन भणितम्-भद्र।। अलं भयेन, को मम प्राणेषु धरत्सु भद्रस्य केशमपि उत्पाटयति । गृहिण्या भणितम्-आर्यपुत्र ! म, एवं करु, कदाचिद् दोषचारी भवेत् । कुलपुत्रकेन भणितम्-सुन्दरि ! अदोषचारी कि शरणं प्रपद्यते ? ततः किमेतेन । यो भवतु, प्रतिपन्नो मया । भणि तश्च-भद्र ! उपविशति । तेन भणितम्आर्य ! कृतान्तहस्तिलङ्घितानीव मृगकुलानि सीदन्ति मेऽङ्गानि, भयाभिभूतस्त्रीहदयमिव कम्पेते में ऊरू, परनिन्दायामिव सज्जनभारती न प्रसरति मे गतिः, अर्थीजनोल्लापा इव पदे पदे स्खलितश्चरणौ प्रेतनाथस्येव देवस्य विजयवर्मण आसन्नीभवन्ति निर्देशकारिण इति । कुलपुत्रकेण भणितम-भद्र ! अलं ते भयेन, को मम प्राणेषु धरत्सु भद्रस्य अंगुल्यापि दर्शयिष्यतीति । ततः परित्यज विषादम उपविश आवासान्तरे । अत्रान्तरे समागता राजपुरुषाः। भणितं च तैः–अरे रे पापकर्मन ! चण्ड देवशासनमतिक्रम्य अद्यापि प्राणान् धारयसि ? के बाहर ठहर गया। इसी बीच, जिसका मुह श्वास से भरा हुआ था, भय से जिसके नेत्र दुःखी थे, जिसके गमन करने की शक्ति क्षीण हो गयी थी और जिसके प्राण कण्ठगत थे-ऐसा कोई कुलपुत्र जल्दी-जल्दी आया। उसने कहा-'आर्य ! रक्षा करो, रक्षा करो, आर्य की शरण में हैं।' कुलपूत्र ने कहा-'भद्र ! भय मत करो। मेरे प्राण रहते कौन है जो भद्र का बाल भी उखाड़ सके ।' गृहिणी ने कहा -- 'आर्यपुत्र ! ऐसा मत करो, कदाचित् दोष करने वाला अपराधी) हो।' कुलपुत्र ने कहा-'जो गलत आचरण नहीं करता है, वह क्या शरण में आता है ? अतः इससे क्या ? जो हो सो हो, मैंने शरण में ले लिया।' मैंने कहा-'भद्र ! बैठो।' उसने कहा-'आर्य ! यमरूपी हाथी के द्वारा लंधित मगसमूह के समान मेरे अंग कांप रहे हैं, भय से अभिभूत स्त्री के हृदय के समान मेरी दोनों जाँघे काँप रही हैं। दूसरे की निन्दा करने वाली सज्जन की वाणी के समान मेरी याचक लोगों की वाणी के समान पग-पग पर मेरे दोनों पैर फिसल रहे हैं, प्रेतनाथ के समान महाराजा विजय वर्मा की आज्ञा मानने वाले लोग समीप आ रहे हैं।' कुलपुत्र ने कहा-'भद्र ! डरो मत, मेरे प्राण रहते हए कौन भद को अंगली भी दिखा सकता है ! अतः विषाद छोड़ो। आवास के भीतर बैठो।' इसी बीच राजपुरुष आ गये। उन्होंने कहा-'अरे रे पापकर्मा! महाराज के प्रचण्ड शासन की अवहेलना कर अभी भी प्राण धारण कर रहा है ?' १. दोसयारी सरणं पवज्जइ, न उण निद्दोसो सरणं पवज्ज इत्ति-क। थर रायन्ते-ख । 2. केसंपि उप्पाडेइ-ख । ३. आवा सन्तरं, उवविट्ठो य एसो दूसहरमन्तरे । एत्थ--क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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