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________________ ३६४ [समराइच्चकहा मए विरूवसोलाई विरुद्धाई ति लोगवायवि(जि)नासणत्थं इममणुचिट्टियं न उण परमत्थओ त्ति । ता गच्छउ कुमारो। तओ अहं पणमिऊण तीए चलणजयलं निग्गओ, तओ गओ नियगेहं। ___ अइकंता काइ वेला । समागओ नरवइबीयहिययभूओ विणयंधरो नाम नयरारक्खिओ। भणियं च तेण--कुमार, वत्तुकामो अहं; ता विवित्तमप्पाणयं आणवेउ कुमारो त्ति। तओ पुलइया वसुभूइपमुहा वयंसया, अवगया य । भणियं च तेण-कुमार, अवहिओ सुण। अस्थि भवओ पिइरज्जम्मि सत्थिमई नाम सन्निवेसो। तत्थ वीरसेणो नाम कुलउत्तओ। सोय अच्चंतदाणवसणी अहिमाणधणो दयालुओ सूरो। गंभीरो सरणागयपरिरक्खणबद्धकच्छिल्लो ॥४४७॥ तस्य य कप्पपायवस्स विय परस्थसंपायणेण सफलं जम्ममणुहवंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो। जाया य से आवन्नसत्ता घरिणी। तओ सो तं गेण्हिऊण महया चडयरेण पयट्टो तीए कुलहरं जयत्थलं नाम नयरं । पत्तो' सेयवियं, आवासिओ बाहिरियाए । एत्थंतरम्मि समागओ साससमावरियाणणो मयाऽपि रूपशीले विरुद्ध इति लोकवादजिज्ञासनार्थमिदमनुष्ठितं न पुन: परमार्यत इति । ततो गच्छतु कुमारः। ततोऽहं प्रणम्य तस्याश्चरणयुगलं निर्गतः । ततो गतो निजगेहम् । अतिक्रान्ता काचिद् वेला। समागतो नरपतिद्वितोय हृदयभूतो विनयन्धरो नाम नगरारक्षकः, भणितं च तेन-कुमार! वस्तुकामोऽहम्, ततो विविक्तमात्मानमाज्ञापयतु कुमार इति । ततो दृष्टा वसुभूतिप्रमुखा वयस्या अपगताश्च । भणितं च तेन-कुमार, अवहितः शृणु । अस्ति भवतः पितराज्ये स्वस्तिमती नाम सन्निवेशः । तत्र वीरसेनो नाम कुलपुत्रकः । स च अत्यन्तदानव्यसनी अभिमानधनो दयालुकः शूरः । गम्भीरः शरणागतपरिरक्षणबद्धकक्षावान् ॥४४५।। तस्य च कल्पपादस्येव परार्थसम्पादनेन सफलं जन्मानुभवतोऽतिक्रान्त कोऽपि कालः । जाता च तस्यापन्नसत्त्वा गृहिणी । ततः स तां गृहीत्वा महता चटकरेण (परिकरेण) प्रवृत्तस्यस्याः कुलगहं जयस्थलं नाम नगरम् । प्राप्तः श्वेतविकाम् । आवासितो बाह्यायाम् । अत्रान्तरे समागतः श्वासहै। मैंने भी 'कुमार रूप और शील में विरुद्ध हैं', ऐसी जनश्रुति होने पर जिज्ञासा के लिए यह कार्य किया है यथार्थ रूप से नहीं। अत: कुमार जाइए।' तब मैं उसके चरण युगल में प्रणामकर निकल गया। वहां से अपने घर गया। ___ कुछ समय बीत गया। राजा के दूसरे हृदय के समान, नगर की रक्षा करने वाला विनयन्धर नामक एक अधिकारी आया। उसने कहा-'कूमार ! में कुछ कहना चाहता हूँ, अतः कुमार अपने एकान्त की आज्ञा दें अर्थात एकान्त में मिलें।' तब वसुभूति प्रमुख मित्रों ने देखा और निकल गये। विनयन्धर ने कहा-'कुमार! सावधान होकर सुनें। आपके पिता के राज्य में 'स्वस्तिमती' नामक सन्निवेश है । वहाँ वीरसेन नामक कुलपुत्र है। वह अत्यन्त दान करने का व्यसनी है, अभिमान उसका धन है, दयालु, शूर, गम्भीर (तथा) शरणागत की रक्षा के लिए कमर कसने वाला है ।।४४७।। कल्पवृक्ष के समान दूसरे के प्रयोजन को साधने में अपने जन्म को सफल मानते हुए उसका कुछ समय व्यतीत हुआ। उसकी गृहिणी गर्भवती हुई। तब वह उसे लेकर बड़े समूह के साथ उसके (गृहिणी के) कुलगृह (पितृगृह) जयस्थल नामक नगर को चल पड़ा। श्वेतविका (नगरी) आयी । नारी १. अणवस्यपयाणएहि य पत्तो सेयवियं भवो पिउणो जमोधम्मुणो यहाणि-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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