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________________ पामो भवो] ५९ तं च पत्ते समाणे अत्थि एगे जीवे, जे तं भिदइ, अस्थि एगे जीवे जे नो भिदइ। तत्थ णं जे से भिंदइ से अपुवकरणेणं भिदइ । तओ तम्मि भिन्ने समाणे अणियट्टीकरणेणं कम्मवणस्स दावाणलेगदेसं, सिवसुहपायवस्स, निरुवयबीयं, संसारचारयस्स मोयावणसमत्थं, चितामणिरयणस्स य लहुयभावजणयं, अणाइम्मि संसारसायरे अपतपुव्वं, पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेयणोवसमक्खयसमुत्थं, पसमसंवेयनिव्वयाऽणुकम्पाइलिंग, सुहायपरिणामरूवं सम्मत्तं पाउणइ, तल्लाहसमकालं च दुवे नाणाणि । तं जहा मइनाणं च सुयनाणं च । तओ तम्मि पत्ते समाणे से जीवे बहुयकम्ममलमुक्के आसन्ननियसरूवभावे, पसन्ने संविग्गे, निविण्णे, अणुकंपापरे, जिणवयणरुई आविहवइ । भणियं च सम्मत्तं उवसममाइएहि लक्खिज्जए उवाएहिं । . आयपरिणामरूवं बज्झेहि पसत्थजोगेहि ॥७३॥ एत्थ य परिणामो खलु जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेओ। किं मलकलंकमुक्कं कणयं भुवि सामलं होइ ॥७४॥ तं च प्राप्ते सति अस्ति एको जीवः यस्तं भिनत्ति, अस्ति एको जीवः यो न भिनत्ति। अत्र यः स भिनत्ति सोऽपूर्वकरणेन भिनत्ति । ततस्तस्मिन् भिन्ने सति अनिवृत्तिकरणेन कर्मवनस्य दावानलैकदेशम्, शिवसुखपादपस्य निरुपहतबीजम्, संसारचारकाद् मोचनसमर्थम्, चिन्तामणिरत्नस्य च लघुकभावजनकम्, अनादौ संसारसागरे अप्राप्तपूर्वम्, प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीयकर्मानुवेदनोपशमक्षयसमुत्थम्, प्रशमसंवेगनिर्वेदाऽनुकम्पादिलिङ्गम्, शुभाऽऽत्मपरिणामरूपं सम्यक्त्वं प्राप्नोति, तल्लाभसमकालं च द्वे ज्ञाने, तद्यथा- मतिज्ञानं च श्रुतज्ञानं च । ततः तस्मिन् प्राप्ते सति स जीवः बहकर्ममलमुक्तः, आसन्ननिजस्वरूपभावः, प्रसन्नः, संविग्नः निविण्णः, अनुकम्पापरः, जिनवचनरुचिश्चापि भवति । भणितं च सम्यक्त्वं उपशमादिकैर्लक्ष्यते उपायैः। आत्मपरिणामरूपं बाह्य : प्रशस्तयोगः ॥७३॥ अत्र च परिणामः खलु जीवस्य शुभस्तु भवति विज्ञेयः । किं मलकलङ्कमुक्तं कनकं भुवि श्यामलं भवति ।।७४।। उसे प्राप्त कर एक जीव है जो उसे तोड़ता है, एक जीव है जो उसे नहीं तोड़ता है । जो तोड़ता है वह अपूर्वकरण से तोड़ता है। उसके टूट जाने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। वह सम्यक्त्व अनिवृत्तिकरण के द्वारा कर्मरूपी वन के लिए दावाग्नि के एक भाग के समान है, मोक्षसुखरू पी वृक्ष का समर्थ बीज है, संसाररूपी कारागार से छडाने में समर्थ है, उसे पाकर चिन्तामणि रत्न भी छोटा लगने लगता है, अनादि संसार-सागर में उसे पहले कभी प्राप्त नहीं किया जा सका है, प्रशस्त सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के अनुभव, उपशम और क्षय से उत्पन्न हुआ है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा आदि उसकी पहचान हैं तथा शुभ आत्मपरिणामरूप है। उसकी प्राप्ति के समय जीव को दो ज्ञान होते हैं -मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । उसकी प्राप्ति होने पर वह जीव बहुत कर्मों के मल से रहित, आत्मस्वरूप भाव के समीप, प्रसन्न, (संसार से) डरा हुआ, निवृत्ति, दयामय और जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के प्रति रुचि वाला हो जाता है । कहा भी है सम्यक्त्व आत्मपरिणामस्वरूप उपशमादि उपायों से लक्षित होता है। तथा बाह्यरूप से प्रशस्त योग के द्वारा इसकी जानकारी होती है। जीव के परिणाम शुभ होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। क्या संसार में मलरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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