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________________ १० [समराइचकहा एगपरिणामसंचियस्स एयस्स दुविहा ठिई समक्खाया। तं जहा उक्कोसिया य जहन्निया य। तत्थ णं जा सा उक्कोसिया, सा तिव्वासुहपरिणामजणियाणं नाणावरण-दरिसणावरण-वेयणीयअन्तरायाणं तीसं सागरोवमकोडाकोडिओ, मोहणिज्जस्स य सत्तरिं, नामगोयाणं वीसं तेत्तीसं च सागरोवमाइं आउयस्स ति। जहन्ना उण तहाविहपरिणामसंचियस्स वेयणीयस्स बारस मुत्ता, नामगोयाणं अट्ठ, सेसाणं भिन्नमुहत्तं त्ति। __ एवंठियस्स य इमस्स कम्मस्स अहपवत्तकरणेण जया घंसणघोलणाए कहवि एग सागरोवमकोडाकोडि मोत्तूण सेसाओ खवियाओ हवंति, तीसे वि य णं थेवमेत्ते खविए तया घणरायदोसपरिणामलक्खणो, नाणावरणदरिसणारणऽन्तरायपडिवन्नसहायभावो, मोहणीयकम्मनिव्वत्तिओ, अच्चंतदुब्भेओ कम्मगंठी हवइ । भणियं च ___ गंठि त्ति सुदुब्भेओ कक्खडघणरूढगढगंठि व्व । जीवस्स कम्मजणिओ घणराग'दोसपरिणामो ॥७२॥ एकपरिणामसंचितस्य एतस्य द्विविधा स्थितिः समाख्याता। तद्यथा-उत्कृष्टा च जघन्या च । तत्र या सा उत्कृष्टा, सा तीव्राशुभपरिणामजनितानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय-अन्तरायाणां त्रिंशत् सागरोपमकोटाकोटि:, मोहनीयस्य सप्ततिः, नामगोत्रयोः विंशति : त्रयस्त्रिशच्च सागरोपमाणि आयुष्कस्य इति। जघन्या पुनः तथाविधपरिणामसंचितस्य वेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ताः, नामगोत्रयोः अष्ट, शेषाणां भिन्नमुहूर्तम् इति। एवंस्थितस्य च अस्य कर्मणः यथाप्रवृत्तकरणेन यदा घर्षणघूर्णनिया कथमपि एकां सागरोपमकोटाकोटि मुक्त्वा शेषाः क्षपिता भवन्ति, तस्या अपि च स्तोकमात्रे क्षपिते, तदा घनरागदोष (द्वेष)परिणामलक्षणः ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तरायप्रतिपन्नसहायभावः मोहनीयकमनिर्वर्तितः अत्यन्तदुर्भेदः कर्मग्रन्थिः भवति । भणितं च ग्रन्थिरिति सदुर्भेदः कर्कशघनरूढगढग्रन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितः घनरागदोष (द्वेष)-परिणामः ॥७२॥ एक परिणाम से संचित इसकी दो प्रकार की स्थिति कही गयी है-उत्कृष्ट और जघन्य । जो उत्कृष्ट स्थिति है वह तीव्र अशुभ परिणाम से उत्पन्न ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की तीस कोडाकोड़ी सागरोपम, मोहनीय की सत्तर सागरोपम, नाम तथा गोत्र की बीस सागरोपम तथा आयुकर्म की तेतीस सागरोपम है । उस प्रकार के परिणामों से संचित वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम तथा गोत्र की आठ मुहूर्त और शेष कर्मों की भिन्नमुहूर्त जघन्य स्थिति है। इस प्रकार स्थिति वाले इस कर्म की यथाप्रवृत्तकरण से जब घिसने-रगड़ने से जिस किसी प्रकार एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम को छोड़कर शेष कर्म नष्ट होते हैं और शेष में से भी थोड़े कर्म नष्ट हो जाते हैं तब अत्यधिक राग-द्वेष परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मोहनीय कर्म से निकली हुई कर्मरूपी गाँठ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की सहायता प्राप्त कर अत्यन्त कठिनाई से भेदी जाने वाली हो जाती है। कहा भी है जीव के कर्मों से उत्पन्न घने रागद्वेषरूप परिणामों से युक्त, कर्कश, कठोर, घुली हुई और गूढ गाँठ के समान कठिनाई से ही तोड़ी जाने योग्य कर्म ग्रन्थि होती है ॥७२॥ १. राय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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