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________________ [समराइच्चकहा पयईइ य कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं ति । अवरद्धे वि ण कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥७॥ नरविबहेसरसोक्खं दुक्खं चिय भावओ उ मन्नन्तो। संवेगओ न मोक्खं मोत्तूणं किंचि पत्थेइ ॥७६॥ नारयतिरियनराऽमरभवेसु निव्वेथओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ वि॥७७॥ दठ्ठणं पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसओ ऽणुकम्पं दुहा वि सामत्थओ कुणइ ॥७॥ मन्नइ तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पन्नत्तं । सुहपरिणामो सव्वं कंखाइविसेसोत्तियारहिओ ॥७॥ एवंविहपरिणामो सम्माविट्ठी' जिणेहि पन्नत्तो। एसो य भवसमुदं लंघइ थैवेण कालेणं ॥५०॥ प्रकृतेश्च कर्मणां विज्ञाय वा विपाकमशुभमिति । अपराद्धऽपि न कुप्यति उपशमतः सर्वकालमपि ॥७॥ नर-विबुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतस्तु मन्यमानः । संवेगतो न मोक्षं मुक्त्वा किंचित् प्रार्थयते ॥७६।। नारक-तिर्यग् नराऽमरभवेषु निर्वेदतः वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्गः ममत्वविषवेगरहितोऽपि ॥७७॥ दृष्ट्वा प्राणिनिवहं भीमे भवसागरे दुःखार्तम् । अविशेषतः अनुकम्पां द्विधाऽपि सामर्थ्यतः करोति ॥७॥ मन्यते तदेव सत्यं निःशङ्क यङ्गिनः प्रज्ञप्तम् । शभपरिणामः सर्वकाङ्क्षादिविश्रोतसिकारहितः ॥७६।। एवंविधपरिणामः सम्यग्दृष्टिजिनैः प्रज्ञप्तः । एष च भवसमुद्र लङ्घते स्तोकेन कालेन ॥८॥ कलंक से रहित हुआ सोना काला होता है ? कर्मों की प्रकृति और अशुभकर्मों के फल को जानकर किसी के अपराध करने पर भी वह क्रोधित नहीं होता है, सभी कालों में उसके उपशमरूप भाव रहते हैं। राजा और इन्द्र के सुख को भी संवेग से दुःख मानता हुआ मोक्ष को छोड़कर किसी की भी प्रार्थना नहीं करता है। निर्वेद की अपेक्षा से वह ममत्व रूपी विष का वेग न रहने पर भी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के भवों के दु:ख ही हैं यह विचारकर जीव परलोक का मार्ग नहीं बनाता । भयानक (पीडित) संसार-सागर में प्राणियों के समूह को दु:ख से पीडित देखकर वह अपने सामर्थ्य के अनुसार बिना किसी भेदभाव के दो प्रकार की स्व तथा परकरता है । वह शुभ परिणामों से युक्त तथा कांक्षा आदि विमार्गगमन से रहित होता हुआ उसे सत्य एवं शंका रहित मानता है जो वीतरागों द्वारा प्रज्ञप्त है। जिनेश्वरों ने सम्यग्दष्टि को ऐसे परिणामों वाला बतलाया है। वह थोड़े ही समय में संसार-सागर को लांघ जाता है। ॥७३-८०॥ १. सम्मट्टिी । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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