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________________ पठमो भवो] तओ य तोसे वि य णं ठिईए पलिओवमपुहत्तमेते खीणे परमत्थओ सुहयरपरिणामगभं देसविरइं पडिवज्जइ । तं जहा थूलगपाणाइवायविरमणं वा, थूलगमुसावायविरमणं वा, थूलयादत्तादाणविरमणं वा, परदारगमणविरमणं वा, सदारसंतोसं वा, अपरिमियपरिग्गहविरमणं वा। से य एवं देसविरइपरिणामजुत्ते, पडिवन्नाणुव्वए, भावओ अपरिवडियपरिणामे नो खलु समायरइ इमे अइयारे। तं जहा-बंध वा, वहं वा, छविच्छेयं वा, अइभारारोवणं वा, भत्तपाणवोच्छेयं वा, तहा सहसब्भक्खाणं वा, रहस्सब्भक्खाणं वा, सदारमंतभेयं वा मोसोवएसं वा, कूडलेहकरणं वा, तहा तेणाहडं वा, तक्करपओगं वा, विरुद्धरज्जाईक्कम वा, कूडतुलकूडमाणं वा, तप्पडिरूवगववहारं वा, तहा इत्तिरियपरिग्गहियागमणं वा, अणंगकीडं वा, परविवाहकरणं वा, कामभोगतिव्वाहिलासं वा, तहा खेत्तवत्थुपमाणाइक्कम वा, हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कम वा, धणधन्नपमाणाइक्कम वा, दुपयचउप्पयपमाणाइक्कम वा, कुवियपमाणाइक्कम वा, तहा अन्ने य एवंजाइए संसारसागरहिंडण ततश्च तस्या अपि च स्थिते: पल्योपमपृथक्त्वमात्रे क्षीणे परमार्थतः शुभतरपरिणामगर्भा देशविरतिं प्रतिपद्यते । तद्यथा-स्थूलकप्राणातिपातविरमण वा, स्थलकमषावादविरमणं वा, स्थूलकाऽदत्तादानविरमणं वा, परदारगमनविरमणं वा स्वदारसंतोषं वा, अपरिमितपरिग्रहविरमणं वा। स च एवं देशविरतिपरिणामयुक्तः, प्रतिपन्नाऽणुव्रतः, भावतोऽपरिपतितपरिणामः नो खलु समाचरति इमान अतिचारान् । तद्यथा-बन्धं वा, वधं वा, छवि(शरीर)च्छेदं वा, अतिभारारोपणं वा, भक्तपानव्युच्छेदं वा, तथा सहसाऽभ्याख्यानं वा, रहस्याभ्याख्यानं वा, स्वदारमन्त्रभेदं वा, मषोपदेशं वा, कटलेखकरणं वा तथा स्तेनाहृतं वा, तस्करप्रयोग वा, विरुद्धराज्यातिक्रमं वा, कटतुला-कटमान वा, तत्प्रतिरूपकव्यवहारं वा तथा इत्वरिकपरिगहीतागमनं वा, अपरिगृहीतागमनं वा, अनङ्गक्रीडां वा, परविवाहकरणं वा, कामभोगतोवाभिलाषं वा तथा क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रमं वा, हिरण्यसुवर्णप्रमाणाऽतिक्रमं वा, धन-धान्यप्रमाणातिक्रमं वा, द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमं वा, कुप्यप्रमाणातिक्रम उस स्थिति में भी पल्योपम पृथक्त्व मात्र के क्षीण होने पर परमार्थ से अत्यन्त शुभपरिणाम जिसके गर्भ में है ऐसी देशविरति को प्राप्त होता है। वह देशविरति यह है-स्थूल रूप से प्राणियों के मारने का त्याग, स्थल रूप से झूठ बोलने का त्याग, स्थूल रूप से बिना दी हुई वस्तु के लेने का त्याग, दूसरे की स्त्री से रमण का त्याग अथवा अपनी स्त्री में सन्तोष रखना, तथा अपरिमित परिग्रह का त्याग । इस प्रकार देशविरतिरूप परिणामयुक्त हुआ वह अणुव्रत को प्राप्त कर भावों से परिणामों से च्युत न होता हुआ इनके अतिचारों का सेवन नहीं करता है। वे अतिचार ये हैं--बन्ध, वध, शरीर के अंगों का छेदन, अत्यन्त भार का लाद देना, भोजन-पानी का रोक देना तथा यकायक किसी बात को प्रकट कर देना, स्त्री-पुरुष की एकान्त में की गयी क्रिया को प्रकट करना, अपनी स्त्री की गूढ बातों को बतला देना, झूठा उपदेश देना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना, चोरी के माल को ले लेना, चोरी के लिए चोर को प्रेरणा देना, राजा की आज्ञा के विरुद्ध चलना, तराजू अथवा बांटों को घट-बढ़ रखना, अधिक कीमती वस्तु में कम कीमती वस्तु मिलाकर बेचना, पति सहित व्यभिचारणी स्त्रियों के यहाँ आना-जाना, कामसेवन के लिए निश्चित अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से कामसेवन करना, दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह कराना, कामसेवन की तीव्र अभिलाषा रखना, खेतों तथा मकान के प्रमाण का उल्लंघन करना, चांदी और सोने के प्रमाण का उल्लंघन करना, धन तथा अनाज के प्रमाण का उल्लंघन करना, दो पैरोंवाले (नौकर-चाकर) तथा चार पैरों वाले (पशुओं) के प्रमाण का उल्लंघन करना, वस्त्र एवं बर्तन आदि के प्रमाण का उल्लंघन करना, तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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