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________________ ६२ [ समराइचकहा निमित्तभूए सुहपरिणामभावओ चेव तो आयरइ ति। तहा इमे एथारूवे उत्तरगुणे य पडिवज्जइ । तं जहा-उड्ढदिसिगुणव्वयं वा, अहोदिसिगुणव्वयं वा, तिरियदिसिगुणव्ययं वा, तहा भोगोवभोगपरिमाणलक्खणगुणव्वयं वा, उवभोगपरिभोगहेउ खरकम्माइपरिवज्जणं वा, तहा अवज्झाणायरियपमायायरियहिंसप्पयाणपावकम्मोवएसलक्खणाणत्थदंडविरइगुणव्वयं था. तहा सावज्जजोगपरिवज्जणनिरबज्जजोगपडिसेवणालक्खण सामाइयसिक्खावयं वा, तहा दिसिवयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणपमाणकरणदेसावगासियसिक्खावयं वा, तहा आहारसरीरसक्कारबम्भचेरअव्वावारलक्खणपोसहसिक्खावयं वा, तहा नायागयाणं, कप्पणिज्जाणं, अन्नपाणईणं दव्वाणं देसकालसद्धासक्कारक जुय पराए भत्तोए आयाणुग्गहट्ठाए संजयाण दाणं ति इइलक्खणातिहि संविभागसिक्खावयं वा। से य एवं कुसलपरिणामजुत्ते पडितन्नगुणव्वयसिक्खावए भावओ अपरिवडियपरिणामे नो वा तथा अन्यांश्च एवंजातिकान् संसारसागरहिण्डननिमित्तभूतान् शुभपरिणामभावत एव नो आचरति । तथा इमान् एतद्रूपान् उत्तरगुणांश्च प्रतिपद्यते । तद्यथा-ऊर्ध्व दिग्गुणवतं वा, अधोदिग्गुणव्रतं वा, तिर्यग्गणव्रतं वा तथा भोगोपभोगपरिमाणलक्षण गुणवतं वा, उपभोगपरिभोगहेतु खरकर्मपरिवर्जनं वा; तथा अपध्यानाचरितप्रमादाचरित-हिंसाप्रदानपापकर्मोपदेशलक्षणानर्थदण्डविरतिगणव्रतं वा, तथा सावद्ययोगपरिवर्जन-निरवद्ययोगप्रतिसेवनालक्षण-सामायिकशिक्षाव्रतं वा, तथा दिखतगहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनप्रमाणकरणदेशावकाशिकशिक्षाक्तं वा, तथा आहारशरीरसत्कार-ब्रह्मचर्य-अव्यापारलक्षणप्रौषधशिक्षाव्रतं वा, तथा न्यायागतानां, कल्पनीयानाम, अन्नापानादीनां द्रव्याणां देशकाल-श्रद्धा-सत्कार-क्रमयुतं परया भक्त्या आत्मानुग्रहार्थाय संयतानां दानमिति, इति लक्षणाऽतिथि-संविभागशिक्षाव्रतं वा। स चैवं कुशलपरिणामयुक्तः प्रतिपन्नगुणवतः शिक्षावत: भावत अपरिपतितपरिणामः नो खलु इसी प्रकार के अन्य संसार-सागर में भ्रमण करानेवाले कार्यों को नहीं करता है और शुभभाव बनाये रखता है। ___ तथा इन-इन प्रकार के उत्तरगुणों को प्राप्त करता है। वे ये हैं-ऊर्ध्वादिग्गुणव्रत (परिमित मर्यादा से अधिक ऊँचाई पर न जाना), अधोदिग्गुणव्रत (मर्यादा से अधिक नीचाई वाले कूप आदि में न उतरना), तिर्यग्दिग्गुण व्रत (समान स्थान में मर्यादा से अधिक लम्बे न जाना), भोगोपभोगपरिमाणलक्षण गुणव्रत (भोग-जो एक बार भोगने में आये तथा उपभोग--जो बार बार भोगने में आये-की वस्तुओं का परिमाण कर उससे अधिक में ममत्व न रखना), उपभोग-परिभोग के कारण खरकर्मादि का त्याग; तथा अपध्यान (बुरा सोचना, खोटे कर्म करना), प्रमादाचरित (प्रमादपूर्वक आचरण करना); हिंसाप्रदान (हिंसा के उपकरण वगैरह देना), पापकर्मोपदेश (पाप कर्मों का उपदेश देना) इन लक्षणवाले अनर्थदण्ड (बिना प्रयोजन दण्ड देने) का त्यागरूप गुणवत, सावद्य (पाप सहित) योग का त्याग करना तथा निरवद्य (पापरहित) योग का ग्रहण क्रिया रूप सामायिक शिक्षाव्रत; दिग्वत के द्वारा गृहीत दिशा के परिमाण में से प्रतिदिन प्रमाण क्रिया रूप देशकालिक शिक्षाव्रत, आहार, शरीर-सत्कार, ब्रह्मवर्य तथा अव्यापार लक्षणवाले प्रौषध शिक्षाव्रत का, न्यायपूर्वक आये हुए योग्य अन्नपान आदि द्रव्यों का देश काल, श्रद्धा तथा सत्कार के क्रम से युक्त उत्कृष्ट भक्ति से अपने अनुग्रह के लिए संयमीजनों को दान देना-इन लक्षणोंवाले अतिथिसंविभागरूप शिक्षावत का भी पालन करना । वह इस प्रकार शुभ परिणामों से युक्त होकर भावतः गुणव्रत और शिक्षाव्रत को प्राप्त करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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