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________________ पंचमो भवो) सारसरवो, विउद्धो अहयं परितुट्ठो चित्तण।चितियं मए -आसन्नकन्नयालाहफलसूयएणं ति होयव्वमणेणं, अणुकुलो खु सउणसंघाओ, अचिरफलदायगो खु एस पुमिणओ, अरण्णं च एयं; ता न याणामो कहं भविस्सइ ति। एत्यंतरम्मि फुरियं मे दाहिणभुणाए लोयणेण य । तओ मए चितियं-न अन्नहा रिसिवयणं ति होयन्वमणेण । अणुकुलो सउणसंघाओ। न य मे विलासरायहाणि विलासवई वज्जिय अन्नकन्नालाहे वि बहुमाणो । भणियं च सुमिणयदेवयाए --- 'कुमार, एसा खु दिव्वकुसुममाला पुवनिव्वत्तिया चेव' । तओ न अन्ना दिव्वकुसुममालाए उवमाणसंगया, न अन्नाए पुवपरिचओ त्ति विलासवइलाहेण चेव होयव्वं ति । अणुहरइ य सा तावसी विलासवईए। विचित्ताणि य विहिणो विलसियाई । कयाइ स च्चेव' होज्ज ति। अन्नहा कहं तावसी, कहं मयणवियारो। किं च-जइ वि सा विलासवई, तहावि पडिवन्नवयाए विरुद्वो विसयसंगो। अहवा संपत्तदसणसुहस्स पिययमामग्गमणुगच्छमाणस्स वयधारगं पि मे सुंदरं चेव। एवं च चितयंतस्स अइक्कंता रयणी, उगओ अंसुमाली, घडियाइं रपणिविरहपीडियाई चक्कवायाई। परितुष्टश्चित्तेन । चिन्तितं मया-आसन्नकन्यकालाभफलसूचकेन [इति] भवितव्यमनेन, अनुकुल: खलु शकुनसङ्घातः, अचिरफलदायकः खल्वेष स्वप्नः । अरण्यं चैतत्, ततो न जानीमो कथं भविष्यतीति । अत्रान्तरे स्फुरितं मे दक्षिणभुजया लोचनेन च। ततो मया चिन्तितम्-नान्यथा ऋषिवचनमिति भवितव्यमनेन । अनुकलः शकुनसङ्घातः । न च मे विलासराजधानी विलासवती वजित्वाऽन्यकन्यालाभेऽपि बहुमानः । भणितं च स्वप्नदेवतया-'कुमार ! एषा खलु दिव्यकुसममाला पूर्वनिर्वतिता एव' ततो नान्या दिव्यकूसममालाया उपमानसङ्गता, न अन्याया: पूर्वपरिचय इति विलासवतीलाभेनैव भवितव्यमिति । अनुहरति च सा तापसी विलासवत्याः। विचित्राणि च विधेविलसितानि, कदाचित् सैव भवेदिति । अन्यथा कथं तापसी, कथं मदनविकारः ? किञ्च यद्यपि सा विलासवती तथापि प्रतिपन्नव्रतया विरुद्धो विषयसङ्गः । अथवा सम्प्राप्तदर्शनसुखस्य प्रियतमामार्गमनुगच्छतो व्रतधारणमपि मे सन्दरमेव । एवं च चिन्तयतोऽतिक्रान्ता र जनो, उद्गतोऽशमाली, घटिता रजनीविरहपीडिताश्चक्रवाकाः । वाला होकर जाग गया। मैंने सोचा शीघ्र ही कन्या का लाभ होना चाहिए -ऐसा इस स्वप्न से सूचित होता है, स्वप्न संयोग अनुकूल है । यह स्वप्न शीघ्र ही फल देने वाला है। यह जंगल है अतः नहीं जानता हूँ, कैसे होगा? इसी बीच मेरी दायीं भुजा और दायां नेत्र फड़क उठा। तब मैंने सोचा-ऋषि के वचन अन्यथा नहीं होते हैं, इसे पूर्ण होना चाहिए। शकुन का संयोग अनुकूल है। मेरा विलास की राजधानी विलासवती को छोड़कर अन्य कन्या की प्राप्ति होने पर भी अधिक सम्मान नहीं है। स्वप्न देवी ने कहा था---'कुमार! यह दिव्यपुष्पमाला है जो कि पहले ही बनायी गयी थी। अतः अन्य दिव्य पुष्पमाला के साथ उपमान की संगति नहीं है. अन्य का पूर्व परिचय भी नहीं है-इस प्रकार विलासवती का लाभ (प्राप्ति) ही होना चाहिए। वह तपस्विनी विलासवती के समान है । भाग्य की चेष्टाएँ विचित्र होती हैं, कदाचित् वही हो । अन्यथा कैसे तो तपस्विनी है कसे (उसमें) काम का विकार है ? दूसरी बात यह है कि यद्यपि वह विलासवती है फिर भी ब्रत ग्रहण करने के कारण उसकी विषयों के प्रति आसिक्त विरुद्ध है । अथवा दर्शन के सख को प्राप्त कर प्रियतमा के मार्ग का अनुसरण करते हुए व्रत धारण करना भी मेरे लिए सुन्दर (अच्छा) है। इस प्रकार विचार करते हुए रात बीत गयी, सूर्य निकल आया। रात्रि में विरह के कारण पीड़ित चक्रवाक मिल गये । १. सा चेव-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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