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________________ पंचमो भवो] मुंच नयणमोहणं पडयं । तहावि न वाहरइ । तओ मए चितियं-नणं नत्थि चेव इह देवी । अन्नहा दळूण मं कहं न अब्भु? इ, कहं वा न वाहरइ ति। तओ परामुट्ठो सत्थरो, नोवलद्धा य देवी । तओ आसंकियं मे हियएणं, फुरियं वामलोयणेणं, निवडियं च मे हत्थाओ पयत्तगहियं पि सोययं नलिणिवत्तं । विहायपराहीणो विय वुण्णवयणतरलच्छं 'देवि देवि' ति जपमाणो पवत्तो गवेसिउं । वालुयाथलीए य उवलद्धा अयगरघसणी' । वेवमाणहियओ पयट्टो तयणुसारेणं । दिट्ठो य तरुवरगहणे अइकसणदेहच्छ्वो विणितनयणविससिहाजालभासुरो नयणमोहणपडगसणवावडो महाकाओ अयगरो त्ति। तं च दळूण चितियं मए-हद्धो वावाइया देवी। तओ न जाणियं मए, कि दिवसो कि रत्ती कि उण्हं कि सीयं किं सुहं कि दुक्खं कि ऊसवो कि वसणं कि जीवियं कि मरणं किं गओ किं ठिओ त्ति; केवलमणाचिक्खणीयं अवत्थंतरं पाविऊण मुच्छानिमीलियनयणो निवडिओ धरणिव, विउत्तासवो विय ठिओ कंचि कालं। जलहिमारुयसमागमेणं च लद्धा चेयणा । चितियं मए -जाव एस अयगरो न देसंतरमवगच्छद, ताव चेव इमिणा अत्ताणयं खवावेमि । मयस्स वि बहुमओ चेव मे परिहासेन, मुञ्च नयनमोहनं पटम् । तथापि न व्याहरति । ततो मया चिन्तितम्-नूनं नास्त्येव इह देवी, अन्यथा दृष्ट्वा मां कथं नाभ्युत्तिष्ठति, कथं वा न व्याहरतोति । ततः परामष्ट: स्रस्तरः, नोपलब्धा च देवी । तत आशङ्कितं मे हृदयेन, स्फुरितं वामलोचनेन, निपतितं च मे हस्तात्प्रयत्नगृहीतमपि सोदकं नलिनीपत्रम् । विषादपराधीन इव भोतवदनतरलाक्षं 'देवि देवि' इति जल्पन् प्रवृत्तो गवेषयितुम् । वालुकास्थल्यां चोपलब्धाऽजगरघर्षणी । वेपमानहृदयः प्रवृत्तस्तदनुसारेण । दृष्टश्च तरुवरगहनेतिकृष्णदेहच्छविविनिर्यन्नयनविषशिखाज्वालाभासुरो नयनमोहनपटग्रसनव्यापतो महाकायोऽजगर इति । तं च दृष्ट्वा चिन्तितं सया-हा धिग, व्यापादिता देवी । ततो न ज्ञातं मया, किं दिवसः किं रात्रि:, किमुष्णं कि शीतम्, कि सुखं किं दुःखम्, किमुत्सवः किं व्यसनम्, कि जीवितं किं मरणम्, किं गतः किं स्थित इति । केवल सनाख्येयमवस्थान्तरं प्राप्य मर्छानिमीलितनयनो निपतितोधरणोपृष्ठे, वियुक्तासुरिव स्थितः कञ्चित्कालम् । जलधिमारुतसमागमेन च लब्धा चेतना। चिन्तितं मया-यावदेषोऽजगरोन देशान्तर नुपसर्पति तावदेवानेनात्मानं खादयामि । भी नहीं बोली। तब मैंने सोचा-निश्चित रूप से यहाँ देवी नहीं है, नहीं तो मुझे देखकर क्यों नहीं उठती है अथवा क्यों नहीं बोलती ? तब बिस्तर को खींचा, देवी नहीं मिली। उससे मेरा हृदय आशंकित हुआ, बायीं आँख फड़को, प्रयत्न से पकड़ा हुआ भी जलयुक्त कमलिनी का त्ता गिर पड़ा। विषाद से पराधीन भयभीत मुख वाला मैं चंचल नेत्रों से 'देवी ! देवी !' कहता हुआ ढढने लगा। बालू में अजगर की घिसावट मिली। जिसका हृदय काँप रहा था, ऐसा मैं उस निशान के अनुसार चल पड़ा। गहन वृक्ष पर एक अत्यन्त काले शरीर वाला, निकलते हुए नेत्रों के विष और चोटी की ज्वाला से भासुर, नयनमोहन वस्त्र को निगलने में लगा हुआ विशालकाय अजगर दिखाई दिया। उसे देखकर मैंने सोचा-हाय ! धिक्कार है, देवी मार डाली गयी । अनन्तर मुझे नहीं ज्ञात हुआ कि क्या दिन है और क्या रात्रि, क्या गर्मी हैं क्या शीत, क्या सुख है क्या दुःख, क्या उत्सव है क्या आपत्ति, क्या जीवन है और क्या मरण, क्या गत है क्या स्थित । केवल अकथनीय अवस्था को पाकर मूळ से नेत्र बन्द कर पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो प्राण निकल गये हों, ऐसा इस प्रकार कुछ समय तक पड़ा रहा । समुद्र की वायु के संसर्ग से चेतना प्राप्त हुई । मैंने सोचा--जब तक यह अजगर दूसरे स्थान पर नहीं खिसकता है तब तक इसे अपने आपको खिलाता हूँ। देवी का समागम मर . ...... वेहणी-क,"घसरणी-ख, २. गरुयतरुवर-ख, ३. गिलावेमि-क। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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