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________________ ४०१ पंचमो भयो] वीइज्जतो य पुणो नलिणीपत्तेहिं चेयणं लहइ । दळूण नियं' छायं जलम्मि परिओसमुन्वहइ ॥४५७॥ तं पेच्छिऊण मज्झं जाया चिता कह णु एसो वि। पियविप्पओयदुहिओ विहिणा विडिज्जइ वराओ॥ ४५८ ॥ तेणेय पंडिया परिहरंति पेम्मं अहिं बिलगयं व । जाणंति जेण पियविप्पओयविसवेयमाहप्पं ॥ ४५६ ॥ इय जा चितेमि अहं ताव य कलहंसओ विहिवसेण । पत्तो परिन्भमंतो सरम्मि एक्कं सरुद्देस ॥ ४६० ॥ असणिभयविप्पणट्टा वियडं भमिऊण सरवरं तत्थ । कुवलयछायाए ठिया दिवा कलहंसिया तेण ॥ ५६१ ॥ विरहपरिदुब्बलंगी असमत्था कुइउ पि सोएण। दळूण य तं हंसो धणियं परिओसम वन्नो ॥ ४६२ ॥ वीज्यमानश्च पुनर्नलिनी पत्रैश्चेतनां लभते । दृष्ट्वा निजां छायां जले परितोषमृद्वहति ॥४५७।। तं प्रेक्ष्य मम जाता चिन्ता कथं नु एषोऽपि । प्रियविप्रयोगदुःखितो विधिना विगुप्यते (व्याकुलीक्रियते) वराकः ।। ४५८ ।। तेनैव पण्डिताः परिहरन्ति प्रेम अहिं विलगतमिव । जानन्ति येन प्रियविप्रयोगविषवेगमाहात्म्यम् ॥ ४५६ ॥ . इति यावच्चिन्तयामि अहं तावच्च कलहंसको विधिवशेन । प्राप्तः परिभ्रमन सरस्येकं शरोद्देशम ।। ४६० ॥ अशनिभयविप्रनष्टा विकटं भ्रान्त्वा सरोवरं तत्र । कुवलयच्छायायां स्थिता दृष्टा कलहंसिका तेन ॥ ४६१ ॥ विरहपरिदुर्बलाङ्गी असमर्था कृजितुमपि शोकेन। दृष्ट्वा च तां हंसो गाढं परितोषमापन्नः ॥ ४६२ ॥ पुन: कमलिनी के पत्तों के द्वारा हवा किया जाता हुआ होश में आ जाता था । जल में अपनी छाया को देखकर .. सन्तोष धारण कर लेता था। उसे देखकर मुझे चिन्ता हुई । बेचारा यह भी प्रिया के वियोग से दु:खी होकर .. कैसे विधि द्वारा व्याकुल किया जा रहा है ! जो प्रिय के वियोग रूपी विष के वेग के माहात्म्य को जानते है ही पण्डित सर्प के बिल में जाने के समान प्रेम से बचते हैं। इस प्रकार जब मैं विचार कर रहा था तब भाग्यवश कलहंस को तालाब के एक भाग में भ्रमण करते हुए हंसी प्राप्त हुई । उसने नीलकमल की छाया में स्थित बिजली की कौंध के भय से उस सरोवर में अत्यधिक घूमकर पक्षी हुई कलहंसी को देखा। वह विरह से दुर्बल अंगों वाली हो रही थी, शोक के कारण कूजन करने में भी असमर्थ थी। उसे देखकर हंस को बहुत अधिक सन्तोष हुआ।॥ ४५७-४६२ ।। १. नियय"क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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