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पंचमो भवो ]
४५३ जालोयणनिमित्त कार्यदि चेव गओ जयाणगारो। निवेइयं राइणो कुविओ एसो तेसि वावायगपुरिसाणं । सद्दाविया णेणं पुच्छिया य । अरे' कत्थ वा कहं वा तुम्भेहि सो समणगरूवधारी वेरिओ मे वावाइओ त्ति । तओ तेहिं विन्नायतयागमणेहि भणियं--देव, नंदिवद्धणे सन्निवेसे । केसालंकारविगमेग न पच्चभिन्नाओ अम्हेहि। तओ पुच्छिओ तत्थ एगो समणगो 'कहिं कयमो वा एत्थ जओ' त्ति। तेण भणियं--एत्थ नागदेवहरए जो एस झाणमुवगओ त्ति। तओ 'सुन्नमेव तमुज्जाणं' ति गंतूण वावाइओ अम्हेहि । राइणा भणियं-अन्नो कोइ तवस्सी तुम्भेहि वावाइओ, सो उण महापावो इहागओ ति । तेहिं भणियं-देव, न सम्म वियाणामो। राइणा भणियं-fक गयं एत्थ संपयं वावाएस्सामों' । पडिस्सुयं च हिं । निग्गओ य एसो नियमंदिराओ' भयवंतवंसणनिमित्तं । विद्रो
ण भयवं वंदिओ य । धम्मलाहिओ य भयवया । कहिओ से सव्वन्नुभासिओ धम्मो न विरत्तो एसो संसारवासाओ त्ति मुणिओ से अहिप्पाओ। भणिओ य एसो-महाराय, अवगयं चेव तए एयं, जहा कम्मपरिणामफलं संसारियाण सत्ताणं सुहं दुक्खं च । सव्वे य सत्ता सुहं अहिलसंति, न दुक्खं । मलं स्वजनालोकननिमित्तं काकन्दीमेव गतो जयाऽनगारः । निवेदितं राज्ञे। कुपित एष व्यापादकपरुषेभ्यः। शब्दायतास्तेन पृष्टाश्च-अरे कुत्र वा कथं वा यष्माभिः स श्रमणकरूपधारी वैरिको मे व्यापादित इति । ततस्तैर्विज्ञाततदागमनैर्भणितम्-देव ! नन्दिवर्धने सन्निवेशे । केशालङ्कारविगमेन न प्रत्यभिज्ञातोऽस्माभिः। ततः पृष्ट एकः श्रमणकः 'कुत्र कतमो वाऽत्र जय'इति । तेन भणितम्अत्र नागदेवगहे य एष ध्यानमुपगत इति । ततः 'शून्यमेव तदुद्यानम्' इति गत्वा व्यापादितो ऽस्माभिः । राज्ञा भणितम्-अभ्यः कोऽपि तपस्वी युष्माभिव्यापादितः, स पुनमहापाप इहागत इति ।
*णितम-देव ! न सम्यग विजानीमः। राज्ञा भणितम्-कि गतम्, अत्र साम्प्रतं व्यापादयिष्यामः । प्रतिश्रुतं च तैः । निर्गत एष निजमन्दिराद् भगवद्दर्शननिमित्तम् । दृष्टस्तेन भगवान वन्दितश्च । धर्मलाभितश्च भगवता । कथितश्च तस्मै सर्वज्ञभाषितो धर्मः । न विरक्त एष संसारवासा. दिति ज्ञातस्तस्याभिप्रायः । भणितश्चैष:-महाराज ! अवगतमेव त्वयैतद्, यथा कर्मपरिणामफल सांसारिकानां सत्वानां सुखं दुःखं च । सर्वे च सत्त्वा सुखमभिलषन्ति, न दुःखम् । मूलं पुनरस्य धर्मः।
अच्छे साधुओं के साथ अपने लोगों को देखने के लिए जयमुनि काकन्दी गये । राजा से निवेदन किया गया। राजा विजय मारनेवाले पुरुषों पर कूपित हआ। उसने बुलाया और पूछा, 'अरे ! कहाँ पर और कैसे तम लोगों ने श्रमणरूपधारी उस मेरे वैरी को मार डाला था?' अनन्तर उन्होंने मुनि महाराज का आगमन जानकर कहा, 'महाराज! नन्दिवर्धन सन्निवेश में। केश और अलंकारों से रहित होने के कारण हम लोग नहीं पहिचान सके। अनन्तर एक श्रमण से पूछा, 'जय कहाँ पर हैं और क्या कर रहे हैं !' उसने कहा, 'इस नागदेवगह में ध्यान लगाये हुए हैं।' अनन्तर 'उद्यान शून्य ही है' ऐसा जानकर हम लोगों ने जाकर मार डाला।' राजा ने कहा, 'तुम लोगों ने कोई अन्य ही तपस्वी मार डाला। वह महापापी तो यहां आया है।' उन्होंने कहा, 'महाराज ! हम लोग ठीक तरह से नहीं जानते हैं ।' राजा ने कहा, क्या गया (बिगड़ा), अभी मार डालो।' उन्होंने स्वीकार किया। यह (विजय) अपने मन्दिर से भगवान के दर्शन के लिए निकला। उसने भगवान् को देखा और वन्दना की । भगवान् ने धर्मलाभ दिया। उसे सर्वज्ञभाषित धर्म सुनाया। यह संसारवास से विरक्त नहीं है-इस प्रकार उसका अभिप्राय जान लिया । जय ने कहा, 'महाराज ! यह तो आप जानते ही हैं कि सांसारिक प्राणियों के कर्म परिणाम का फल सुख और दुःख होता है । सभी प्राणी सुख की इच्छा करते हैं, दुःख की
१."हरे-क । २. नियहीए-क ।
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