SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५४ [ समराइच्चकहा पुज इमस्स धम्मो तस्स परिणामो सुरुवया पियसमागमसुहाई सोहग्गं अरोगया बिउलाय भोया । ता अवलंबेहि सयलसोक्ख निहाणभूयं धम्मं आयरसु मेति, वट्ट े हि दाणं, करेहि सव्वसत्तेसु दयं ति । विजण चिति । समुपनं इमस्स मरण यं, अओ एवं भणाइ । ता कहि वच्चइति । चितिऊण भणियं च णेण - भयवं, जं तुमं आणवेसि अन्नं च, जयप्पभूइमेव पडिवन्नो तुमं बीयरागभासियं धम्मं तपभूइमेव आढत्तं मए इमं । भयवया भणियं सोहणं कथं तए । तओ कंचि वेलं पज्जुवासिऊण पविट्ठो नयर । चितियं च णेण । अज्जेव एयं दुरायारं वावाएमि । पसंते वि भयवंते पुव्वकयकिलिट्ठकम्मपरिणई चेवेत्थ कारणं विजयस्स । भणियं च असं मायणे जो उ होइ परिणामो । सो संकिलट्ठकम्मरस कारणं जमिह पाएण ॥ ४७६ ॥ समागया रयणी । भणिया य राइणा पुव्वपेसिया वावायगपुरिया । अरे अज्जं तं दुरायारं arateमोति । पस्यमणेहिं । अत्थमिओ मियंको । कइवयपुरिसपरिवारिओ गओ जयाणगारतस्य परिणामः सुरूपता प्रियसमागमसुखानि सौभाग्यमरोगता विपुलाश्च भोगाः । ततोऽवलम्बस्व सकल सौख्यनिधानभूतं धर्मम् आचर मैत्रीम्, वर्तय दानम्, कुरु सर्वसत्त्वेषु दयामिति । विजयेन चिन्तितम् - समुत्पन्नमस्य मरणभयम्, अतः एवं भणिति । तत कुत्र व्रजति ? इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - भगवन् ! यत्त्वमाज्ञापयसि । अन्यच्च यत्प्रभृत्येव प्रतिपन्नस्त्वं वीतरागभाषितं धर्मं तत्प्रभृत्येवारब्धं मयेदम् । भगवता भणितम् - शोभनं कृतं त्वया । ततः काञ्चिद् वेलां पर्युपास्य प्रविष्टो नगरीम् । चिन्तितं च तेन - अद्यैव एतं दुराचारं व्यापदयामि । प्रशान्तेऽपि भगवति पूर्वकृतक्लिष्टकर्म परिणतिरेवात्र कारणं विजयस्य । भणितं च अतिसंक्लिष्टकर्मानुवेदने यस्तु भवति परिणामः । स संक्लिष्टकर्मणः कारणं यदिह प्रायेण ॥ ४७६ ॥ समागता रजनी | भणिताश्च राज्ञा पूर्वप्रेषिता व्यापादकपुरुषाः । अरे अद्य तं दुराचारं व्यापादयाम इति । प्रतिश्रुतमेभिः । अस्तमितो मृगाङ्गः । कतिपय पुरुषपरिवृतो गतो जयानगार नहीं । सुख का मूल धर्म है । उसका फल सुरूपता, प्रिय समागम का सुख, सौभाग्य, अरोगता और विपुल भोग हैं । अतः समस्त सुख के निधानभूत धर्म का अवलम्बन करो, मंत्री का आचरण करो, दान दो, समस्त प्राणियों पर दया करो ।' विजय ने सोचा -- ( इसे ) मरण का नय हो रहा है, इसलिए ऐसा कर रहा है । अत: कहाँ जाता है ? ऐसा सोचकर उसने कहा, 'भगवन् ! जैसी आप आज्ञा दें। दूसरी बात यह है कि जबसे आप वीतराग कहा, 'तुमने ठीक किया ।' भाषित धर्म को प्राप्त हुए हैं, तब से मैंने धर्म का आरम्भ कर दिया है ।' भगवान् ने अनन्तर कुछ समय तक उपासना कर नगरी में प्रविष्ट हुआ और उसने ( विजय ने सोचा- आज ही इस दुराचारी को मार डालूँगा । भगवान् के शान्त होने पर भी विजय के पूर्वकृत क्लेशजनक कर्मों के परिमाम का ही यहाँ कारण था । कहा भी है अत्यन्त संक्लिष्ट कर्म का अनुभव करने में जो परिणाम होता है वह प्रायः क्लेशजनक कर्मों के कारण ही होता है । ४७६ ॥ रात आयी । राजा ने पहले भेजे हुए मारने वाले पुरुषों से कहा- 'अरे ! आज उस दुराचारी को मार डालेंगे।' इन्होंने स्वीकार किया । चन्द्रमा अस्त हो गया था । कुछ पुरुषों के साथ विजय जयमुनि के पास गया । १. श्रारोग्यया - ख । २. दवावेहि-क । ३. जयव्य । नइमेव क । ४. तयप्पभिइमेव । ५. हरे क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy