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________________ पचमो भवो] ४५५ समीवं विजओ। दिट्ठो य णेण निवायसरणपदीवो व्व सज्झाणसंगओ भयवं-- तिव्वाणुहावकसाओदएणं च कड्ढियं मंडलग्गं । अहिययरं गहिओ कसाएहिं । अवगया सुकयवासणा, पवत्तो महामोहो आगलिओ तिव्वकम्मपरिणईए। पवड्ढमाणकोवाणलेग पहओ सिरोहराए, एगपहारेणेव पाडियं उत्तिमंगं । 'विजयकुमारो चेव एसो' त्ति 'अहो विचित्तया जीवचरियाणं, अचितणीया कम्मुणो गई' त्ति चितऊण अवगया साहुणो। ___ भयवं पुण गंभीरयाए आसपास विसुद्धयाए मेत्तीए' अचलिययाए झाणस्स निम्ममयाए सरीरे भाविययाए जिणवयस्स खीणप्पाययाए पावकम्मणो वि सुद्धयाए लेसाभावस्स थिरयाए संजमधिईए आसन्नयाए परमपयस्स अपरिवडियसुहपरिणामो चइऊग देहं समुप्पन्नो आगयाभिहाणे देवलोए सिरिप्पहे विमाणे अट्ठारससागरोवमाऊ वेमाणिओ त्ति । विजयओ वि य तं वावाइऊण महाणभावं कयकिच्चं मन्नमाणो अप्पाणं पविट्ठो नरिं । सेससाहुणो वि गोसे गया सणंकुमारायरियसमीवं । साहिओ सयलवुत्तंतो आयरियस्स । सुसीसो त्ति काऊणमणन्नसरिसं कयं परिदेवणं गुरुणा । इयरो समीपं विजयः। दृष्टस्तेन निवातशरणप्रदीप इव सद्ध्या नसङ्गतो भगवान् । तीव्रानुभावकषायोदयेन च कृष्टं मण्डलायम्। अधिकतरं गृहीतः कषायैः । अपगता सुकृतवासना, प्रवृत्तो महामोहः, (आसगलिओ दे.) आक्रान्तः तीव्रकर्मपरिणत्या । प्रवर्धमानकोपानलेन प्रहतः शिरोधरायाम् । एकप्रहारेणैव पातितमुत्तमाङ्गम् । 'विजयकुमार एषः' इति अहो विचित्रता जीवचरितानाम्, अचिन्तनीया कर्मणो गतिः' इति चिन्तयित्वाऽपगता: साधवः। भगवान् पुनर्गम्भीरतयाऽऽशयस्य विशुद्धतया मैत्र्या अचलिततया ध्यानस्य निर्ममतया शरीरे भविततया जिनवचनस्य क्षीणप्रायतया पापकर्मणो विशुद्धतया लेश्याभावश्य स्थिरतया संयमधृत्या आसन्नतया परमपदस्य अपरिपतितशुभपरिणामश्च्युत्वा देहं समुत्पन्न आनताभिधाने देवलोके श्रीप्रभे विमाने अष्टादशसागरोपमायूष्को वैमानिक इति । विजयोऽपि च तं व्यापाद्य महानुभावं कृतकृत्यं मन्यमानं आत्मानं प्रविष्टो नगरीम् । शेषसाधवोऽपि प्रातर्गताः सनत्कुमाराचार्यसमीपम् । कथितः सकलवृत्तान्त आचार्याय । सुशिष्य इति कृत्वाऽनन्यसदृशं कृतं परिदेवनं गुरुणा। उसने वायुरहित स्थान की शरण में गये हुए दीपक के समान भगवान् को सद्ध्यान से युक्त देखा। तीव्र निश्चय और कषाय के उदय से तलवार खींची । कषायवश बड़े जोर से पकड़ी। पुण्य का संस्कार नष्ट हो गया, महामोह प्रवृत्त हुआ । तीव्र कर्म की परिणति से (वह) आक्रान्त हो गया। बढ़ी हुई क्रोधरूपी अग्नि से (उसने) गर्दन पर प्रहार किया। एक प्रहार से ही सिर को गिरा दिया। 'यह विजयकुमार है । जीवों के चरित्र की विभिन्नता पाश्चर्यमय है । कर्म की गति अचिन्तनीय है' - ऐसा सोचकर साधु चले गये। पुनः आशय की गम्भीरता, मैत्री की विशुद्धता, ध्यान की एकाग्रता, शरीर के प्रति निर्ममत्व, जिनवचनों का भाव, पापकर्म की क्षीणप्रायता, लेश्यापरिणाम की विशुद्धता, संयमधारण की स्थिरता, परमपद (मोक्ष) की समीपता से पतित न होकर शुभ परिणामों से देह छोड़कर आनत नामक स्वर्गलोक के 'श्रीप्रभ' विमान में अठारह सागर की आयु वाले वैमानिक देव हुए । विजय भी उन महानुभाव को मारकर अपने-आपको कृतकृत्य मानता हुआ नगरी में प्रविष्ट हुआ। शेष साधु भी सनत्कुमार आचार्य के पास गये। समस्त वृत्तान्त आचार्य से कहा । 'सुशिष्य था' -ऐसा मानकर गुरु ने अनन्यतुल्य उसके प्रति दुःख मनाया। विजय राजा भी उसी समय से महान् पाप के १. निव्वायसरणपईवो-क। २."सन्ना-क । ३. जीवाणमुवरिमैत्तीए-क । ४. भावणाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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