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[समराइन्धकहा
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तुच्छं पि सुपत्तम्मि उ दाणं नियमेण सुहफलं होइ । जह गावीए विइण्णं तणं पि खीरत्तणमुवेइ ॥२८१॥ होइ सुहासुहफलयं पत्तविसेसेण दाणमेगं पि। गावी-भुयंगपीयं जह उदगं होइ खीर-विसं ॥२८२॥ भण्णइ य कालसुद्धं दाणं कालोववन्नयं जं तु।। दिज्जइ तवस्सिदेहोवयारकालम्मि सुविसुद्धं ॥२८३॥ कालम्मि कीरमाणं किसिकम्मं बहुफलं जहा होइ। इय कालम्मि वि दिन्नं दाणं पि हु बहुफलं नेयं ॥२४॥ होइ अयालम्मि जहा अवयारपरं पइण्णयं वीयं । देन्तस्स गाहगस्स य एवं दाणं पि विन्नेयं ॥२८॥ जाणह य भावसुद्धं सद्धा-संवेगपयडपुलयो य। कयकिच्चं मन्नेन्तो अप्पाणं देइ जो दाणं ॥२८६॥ तुच्छमपि सुपात्रे तु दानं नियमेन शुभफलं भवति । यथा गवि वितीर्णं तृणमपि क्षीरत्वमुपैति ॥२८१।। भवति शुभाशुभफलदं पात्रविशेषेण दानमेकमपि । गो-भुजंगपीतं यथा उदकं भवति क्षीर-विषम् ॥२२॥ भण्यते च कालशुद्धं दानं कालोपपन्नकं यत् तु । दीयते तपस्विदेहोपचारकाले सुविशुद्धम् ॥२८३॥ काले क्रियमाणं कृषिकर्म बहफलं यथा भवति । इति कालेऽपि दत्तं दानमपि खलु बहुफलं ज्ञेयम् ॥२८४॥ भवति चाऽकाले यथा अपकारपरं प्रकीर्णकं बीजम् । ददतो ग्राहकस्य च एवं दानमपि विज्ञेयम् ॥२८॥ जानीत च भावशद्धं श्रद्धा-संवेगप्रकटपुलकश्च । कृतकृत्यं मन्यमान आत्मानं ददाति यो दानम् ॥२८६॥
सुपात्र को दिया गया तुच्छ (थोड़ा-सा) दान भी नियम से शुभ फल' वाला होता है । जैसे-गाय को दिया गया तृण भी दुग्ध के रूप में परिणत हो जाता है। पात्र विशेष की अपेक्षा वही एक दान भी शुभ और अशुभरूप फल को देने वाला हो जाता है । जिस प्रकार गाय और साँप के द्वारा पिया गया पानी क्रमशः दूध और विष हो जाता है । समयानुसार दिया गया दान कालशुद्ध कहा जाता है जो कि तपस्वीजनों की सेवा के निमित्त समय पर विशुद्ध रूप से दिया जाता है । जैसे- समय पर की गयी खेती बहुत फल देती है, उसी प्रकार समय पर दिया गया दान भी निश्चय ही बहुत फल देता है। अकाल में बोया गया बीज जिस प्रकार अपकारी होता है, उसी प्रकार असमय में पात्र को दिया गया दान भी अपकारी होता है- ऐसा जानना चाहिए । श्रद्धा और संवेग भाव से रोमांच प्रकट कर अपने आपको कृतकृत्य मानते हुए जो दान दिया जाता है उसे भावशद्ध दान जानो ॥२८१-२८६।।
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