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तमो भवी ]
नवकोडी परिसुद्धं दसदोसविवज्जियं च देयं पि । एपि भावसुद्धं पन्नत्तं वीयरागेहं ॥२८७॥ अट्टवसट्टोवगओ अवि सुद्धं देइ कलुसियमणो उ । सनिदाणं च न एवं भावविसुद्धं हवइ दाणं ॥ २८८॥ मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही मुणेयव्वो । अणुपादाणं पुण जिहि न कहिंचि पडिसिद्धं ॥ २८६ ॥ एसो उ दाणमइओ धम्मो संखेवओ समक्खाओ । एतोय सीलमइयं तु भण्णमाणं निसामेह ॥ २६०॥ जाह य सीलमइयं पाणवहा ऽलिय- अदिन्नदाणाणं । मेण परिग्गहाण विरई जा सव्वहा सम्मं ॥२१॥ तह कोह - माण - माया - लोहस्स य निग्गहो दढं जो उ । खंतीय मद्दव - ऽज्जव-संतोसविचित्तसत्र्थोहिं ॥२६२॥
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नवकोटिपरिशुद्धं दशदोषविवर्जितं च देयमपि । एतद् अपि भावशुद्धं प्रज्ञप्तं वीतरागः ॥ २८७ ॥ आर्तवार्तोपगतोऽपि शुद्धं ददाति कलुषितमनास्तु । सनिदानं च न एतद् भावविशुद्धं भवति दानम् ॥२८८॥ मोक्षार्थं यद् दानं तत् प्रति एष विधिर्ज्ञातव्यः । अनुकम्पादानं पुनर्जिनैर्न कुत्रचित् प्रतिबद्धम् ॥ २८६ ॥ एष तु दानमयो धर्मः संक्षेपतः समाख्यातः । इतश्च शीलमयं तु भण्यमानं निशामयत ॥ २६०॥ जानीत च शीलमयं प्राणवधा ऽलीका - दत्ताऽऽदानानाम् । मैथुन - परिग्रहाणां च विरतिर्या सर्वथा सम्यक् ॥ २६१॥ तथा क्रोध-मान- माया लोभस्य च निग्रहो दृढं यस्तु । क्षान्त्या मार्दवाऽऽर्जव - सन्तोषविचित्रशस्त्रैः ॥२६२॥
यह भी नव प्रकार से परिशुद्ध और दश दोषों से रहित होकर देना चाहिए। इस भावशुद्ध दान का भी उपदेश वीतरागों ने दिया है। आर्तध्यानवश अथवा आर्तध्यान का अनुभव करते हुए कलुषित मन से जो शुद्ध दान देता है वह निदान है, भावविशुद्ध दान नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो दान दिया जाता है उसकी यह विधि जाननी चाहिए । पुनः अनुकम्पादान का जिनों ने कहीं भी निषेध नहीं किया है । यह दानमय धर्म संक्षेप से कहा । अब शीलमय धर्म कहा जाता है सुनो। प्राणों का वध, झूठ बोलना, बिना दी हुई वस्तु को लेना, मैथुन और परिग्रह से सर्वथा और सम्यक् जो विरति है उसे शीलमय धर्म जानो । तथा क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोषरूप नाना प्रकार के शस्त्रों से दृढ़तापूर्वक निग्रह करना ।। २८७ - २४२ ॥
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