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________________ हमो मनो] १८७ जाणह गाहगसुद्धं पंचमहन्वयधरो उ जो नियमा। गुरुसुस्सूसानिरओ जोगम्मि समाहियप्पा य ॥२७॥ तह खंति-मद्दव-ऽज्जवजुत्तो धणियं च विगयलोहो उ । मण-वयण-कायगुत्तो पंचिदियनिग्गहपरो य ॥२७६॥ सज्झायझाणनिरओ सुद्धप्पा सुद्धसाहुचरिओ य। इह परलोए य तहा सव्वत्थ दढं अपडिबद्धो ॥२७७॥ मेरु व्व जो न तोरइ उवसग्गसमीरणेहि चालेउ । एयारिसम्मि दाणं गाहगसुद्धं तु विन्नेयं ॥२७॥ सीलव्वयरहियाणं दिज्जइ जं पुण धणं कुपत्ताणं । तं खलु धोवइ वत्थं रुहिरकयं सोणिएणेव ॥२७६॥ दिन्नं सुहं पि दाणं होइ कुपत्तम्मि असुहफलमेव । सप्पस्स जह व दिन्नं खोरं पि विसत्तणमुवेइ ॥२०॥ जानीत ग्राहकशुद्धं पञ्चमहाव्रतधरस्तु यो नियमात् । गुरुशुश्रूषानिरतो योगे समाहितात्मा च ॥२७५।। तथा शान्ति-मार्दवा--ऽऽर्जवयुक्तो बाढं च विगतलोभस्तु । मनो-वचन-कायगुप्तः पञ्चेन्द्रियनिग्रहपरश्च ।।२७६॥ स्वाध्यायध्याननिरतः शुद्धात्मा शुद्धसाधुचरितश्च । इह परलोके च तथा सर्वत्र दृढमप्रतिबद्धः ॥२७७॥ मेरुरिव यो न शक्यते उपसर्गसमीरणैश्चालयितुम् । एतादृशे दानं ग्राहकशुद्धं तु विज्ञेयम् ॥२७८।। शीलवतरहितानां दीयते यत् पुनर्धनं कुपात्राणाम् । तत् खलु धावयति वस्त्रं रुधिरकृतं शोणितेनेव ॥२७६।। दत्तं शुभमपि दानं भवति कुपात्रे अशुभफलमेव । सर्पस्य यथा वा दत्तं क्षीरमपि विषत्वमुपैति ॥२०॥ - ग्राहक शुद्ध वह है जो नियम से पांच महाव्रतों को धारण करता है, गुरु की सेवा में रत रहता है बोर योग में अपने को समाहित किये रहता है तथा क्षमा, मार्दव, आर्जव से युक्त और लोभरहित रहता है। मन, वचन, काय - इस प्रकार तीन गुप्तियों का पालन करता है, पाँच इन्द्रियों को वश में करता है । स्वाध्याय और ध्यान में रत है, शुद्धात्मा है, शुद्ध साधुचरित वाला है । इसलोक और परलोक के प्रति जिसकी कोई कामना नहीं है तथा जो उपसर्ग रूपी वायु के द्वारा मेरु के समान चलायमान नहीं हो सकता है। इस प्रकार के ग्राहक को दान देना शुद्ध पात्र को दान देना है । जो शील और व्रत से रहित कुपात्रों को धन दान देता है वह खून से रंगे वस्त्र को खून से ही धोता है। शुभ दान भी कुपात्र में (देने से) अशुभ फल वाला ही होता है । जैसेसांप को पिलाया गया दूध भी विष हो जाता है ॥२७५-२८०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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