________________
१५६
नाओवगयं दध्वं फासुगमविरुद्धगं च लोगम्मि। इहपरलोयासंसं मोत्तूणं निज्जरट्ठी उ ॥२६॥ सुक्खेतम्मि व बीयं विक्खित्तं तस्स बहुफलं होइ । तं दाणं मणुयामर सिवसुहसंपत्तिजणयं तु ॥२७०॥ जो पुण सद्धारहिओ दाणं देइ जसकित्तिरेसम्मि'। अहिमाणेण व एसो देइ अहं कि न देमि त्ति ॥२७१॥ तं सद्धाजलरहियं बोयं व न होइ बहुफलं तस्स । दाणं बहु पि पवरं दूसियचित्तस्स मोहेण ॥२७२॥ काऊण य पाणिवह जो दाणं देइ धम्मसद्धाए। दहिऊण चंदणं सो करेइ अंगारवाणिज्जं ॥२७३॥ मूढो लोयविरुद्धं धम्मविरुद्धं च देइ जो दाणं। सो अप्पाणं तह गाहगं च पाडेइ संसारे ॥२७४॥ न्यायोपगतं द्रव्यं प्रासुकमविरुद्धकं च लोके । इहपरलोकाशंसां मुक्त्वा निर्जरार्थी तु ॥२६९॥ सुक्षेत्रे इव बीजं विक्षिप्तं तस्य बहुफलं भवति । तद् दानं मनुजाऽम रशिवसुखसम्पत्तिजनकं तु ॥२७०॥ यः पुनः श्रद्धारहितो दावं ददाति यश कीर्तिनिमित्तम् । अभिमानेन वा एष ददाति अहं किं न ददामीति ॥२७१॥ तत् श्रद्धाजलरहितं बीजमिव न भवति बहुफलं तस्य । दानं बहु अपि प्रवरं दूषितचित्तस्य मोहेन ॥२७२।। कृत्वा च प्राणिवधं यो दानं ददाति धर्मश्रद्धया। दग्ध्वा चन्दनं स करोति अङ्गारवाणिज्यम् ॥२७३॥ मूढो लोकविरुद्ध धर्मविरुद्धं च ददाति यो दानम् । स आत्मानं तथा ग्राहकं च पातयति संसारे ॥२७४॥
कर्मों की निर्जरा के इच्छुक व्यक्ति को इरा लोक और परलोक की प्रशंसा की अभिलाषा छोड़कर न्यायपूर्वक अजित, शुद्ध और लोक से जो विरुद्ध न हो, लोकाविरुद्ध दान देना चाहिए। जिस प्रकार उत्तम भूमि में बोया गया बीज अत्यधिक फल को प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया गया दान मनुष्य, देव और मोक्षसुख रूप सम्पत्ति का जनक होता है। जो यश और कीर्ति अथवा अभिमानवश कि यह देता है, मैं क्यों नहीं द, इस प्रकार श्रद्धा रहित होकर दान देता है वह दान श्रद्धारूपी जल से रहित बीज के समान उसे (दाता को) अधिक फल नहीं देता है । जो अत्यधिक दूषित चित्त वाला होकर मोह से विपुल दान करता है अथवा धर्म के प्रति श्रद्धा होने के कारण प्राणिवध करके दान देता है वह चन्दन को जलाकर कोयले का व्यापार करता है । जो मूढ़ व्यक्ति लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध दान देता है वह अपने आपको और लेने वाले को संसार में गिराता है ॥२६६-२७४।। 1, रेसम्मि (अव्य०) निमित्तएँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org