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पढमो भवो
__ तओ खवगसेढिपरिसमत्तीए सासयं, अणंतं, केवलवरनाणदसणं पाउणइ । तओ कमेणं खवियसेस भवोग्गाहिकम्मसे सव्वकम्मविप्पमुक्के पाउणइ सासयं ठाणं' ति । एत्थंतरम्मि य गुरुवयःणायण्णजणियसुहपरिणामाणलदड्ढबहुकम्मेन्धणेणं, भावओ पवन्नसम्मत्ताणुव्वयगुणव्वयसिक्खाक्यगुणट्ठाणेण भणियं गुणसेणेणं-भयवं ! धन्नोऽहं जेण मए पावमलपक्खालणं रागाइविसधायणं, पसमाइगुणकारणं, भवचारयनिस्सारणं सुयं ते वयणं ति । ता आइसह संपयं, जं मए कायव्वं ति । अहवा आइट्ठ' चेव भयवया । ता देहि मे ता गिहिधम्मसारभूए अणुव्वयाइए गुणट्ठाणे।
___ गरुणा भणियं-किच्चमेयं तएजारिसाणं भव्वसत्ताणं ति विहिपुव्वयं दिन्नाणि से अण.याणि अणुसासिओ य बहुविहं । तओ वंदिऊण परमभत्तीए सपरिवारं गुरुं पविट्ठो नयरं। कयभोयणोक्यारो य परिणयप्पाए दियहे पुणो वि निग्गओ त्ति । बंदिया यणेण देवगुरवो। कालोइयमणुसासिओ य गुरुणा । तओ य कंचि वेलं पज्जुवासिऊण विहिणा पुणो नयरं पविट्ठो त्ति । एवं उभयकालं गुरुदंसणतव्वयणसुणणसोक्खमणुहवंतस्स अईओ मासो, परिणओ से धम्मो । कप्पसमत्तीए य गओ अन्नत्थ
ततः क्षपकश्रेणिपरिसमाप्तौ शाश्वतम्, अनन्तम्, केवल वरज्ञानदर्शनं प्राप्नोति । ततः क्रमेण क्षपितशेषभवोपग्राहिकर्मांशः सर्वकर्मविप्रमुक्त: प्राप्नोति शाश्वतं स्थानमिति । अत्रान्तरे च गरुवचनाऽऽकर्णजनित शभपरिणामानलदग्धबहुकर्मेन्धनेन । भावत: प्रपन्नसम्यक्त्वाऽणव्रत-गणव्रतशिक्षाव्रतगणस्थानेन भणितं गुणसेणेण-भगवन् ! धन्योऽहम्, येन मया पापमलप्रक्षालनम्। रागादिविषघातनम्, प्रशमादिगुणकारणम्, भवचारक निस्सारणं श्रुतं तव वचनम् इति । तत आदिशत साम्प्रतं यद् मया कर्त्तव्यमिति। अथवा आदिष्टमेव भगवता । ततो देहि मम तावद गहिधर्मसारभूतानि अणुव्रतादिकानि गुणस्थानानि ।
गुरुणा भणितम्-'कृत्यमेतत् स्वादशानां भव्यसत्त्वानाम' इति विधिपूर्वकं दत्तानि तस्य अणव्रतानि, अनुशासितश्च बहुविधम् ततो। वन्दित्वा परमभवत्या सपरिवारंगरूं प्रविष्टो नगरम् । कृतभोजनोपचारश्च परिणतप्राये दिवसे पुनरपि निगत इति । वन्दिताश्च अनेन देवगरवः। कालोचित्तमनुशासितश्च गुरुणा । ततश्च कांचिद् वेलां पर्युपास्य विधिना पुनर्नगरं प्रविष्ट इति । एवम्उभयकालं गुरुदर्शन-तद्वचनश्रवणसौख्यमनुभवतः अतीतो मासः, परिणतस्तस्य धर्मः। कल्पसमाप्ती
तदनन्तर क्षपक श्रेणी के समाप्त होने पर शाश्वत, अनन्त एवं उत्कृष्ट केवलज्ञान, केवलदर्शन पाता है अनन्तर क्रम से भवोपग्राही शेष कर्मों के अंशों का क्षय कर, समस्त कर्मों से छुटकारा पाकर शाश्वत स्थान प्राप्त करता है। इसी बीच गुरु के वचन सुनने से उत्पन्न शुभपरिणामरूपी अग्नि के द्वारा जिसने बहुकर्मरूपी ईंधन को जला दिया है ऐसे गुणसेन ने अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाव्रत तथा गुणस्थान के द्वारा भावपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त कर कहा'भगवन ! मैं धन्य हूँ जिसने कि पापमल को धोनेवाले, रागादि विष को नष्ट करनेवाले, प्रशम आदि गुणों के कारण, संसार रूपी कारागार से निकालने वाले आपके वचनों को सुना । अब आप आदेश दें, मैं क्या करू ! अथवा भगवान् ने आदेश दे ही दिया है । अतः गृहस्थधर्म के सारभूत अणुव्रत आदि गुणों के स्थान दीजिए।'
गुरु ने कहा, "आप जैसे भव्य जीवों को ऐसा ही करना चाहिए।" इस प्रकार विधिपूर्वक उसे अणुव्रत प्रदान किये और अनेक प्रकार की शिक्षा दी। तब परमभक्ति से सपरिवार गुरु की वन्दना कर वह नगर में प्रविष्ट हुआ। भोजनादि कार्य कर अपराह्न में पुनः निकला। उसने देव-गुरुओं की बन्दना की। गुरु ने समयोचित शिक्षा दी। तब कुछ समय विधिपूर्वक उपासना कर पुनः नगर में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार दोनों समय गुरुदर्शन कर उनके वचन से कर्णसुख का अनुभव करते हुए एक मास बीत गया, उसका धर्म वृद्धि गत हुआ। व्रत समाप्त होने १. थाम, २. आइट, ३. मेयंति, ४. तएयारिसाणं ।
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