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________________ ६६ भयवं विजयसेणायरिओ त्ति । तओ अइक्तेसु कइवयदिणेसु राइणो गुणसेणस्स पासायतलसंठियस्स कहवि सोऊण हाहारवसद्द गर्भिणं मरणनरवइणो विव पयाणढक्कं, संसाररक्खसस्स विव अट्टहास, जीवलोयस्स विव पमायचरियं मयगडंडिमसद्दं; पेच्छिऊण तं कथंतवसवत्तिणं, चउपुरिसधरियकार्य, कंदंतबंधुजणपरिवारियं सवं ; परमसंवेगभावियमइस्स, इंदयालसरिसजीवलोयमवगच्छिऊण धम्मज्जाणजलपक्खा लिय पावलेवस्स समुप्पन्ना चिता - अम्हे वि एव चेव मरणधम्माणो त्ति । अहो ! णु खलु एवं विरसावसाणे जीवलोए ते धन्ना जे तेलोक्कबंधुभूए, अचितचतामणिसन्निहे, परमरिसिसवन्नुदेसि धम्मे कयाणुराया आगारवासाथी' अणगारियं पव्वयंति । तओ य पाणवहमुसावायअदत्तादाज मेहुणपरिग्गहविरया, बायालीसेसणादोस परिसुद्ध पिण्डगाहिणो, संजोयणाइपंचदोसर हियमियकालभोइगो पंचसमिया, ति गत्ता, निरइयारवयपरिपाल - च गतोऽन्यत्र भगवान् विजसेनाचार्य इति । ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपय दिनेषु राज्ञो गुणसेनस्य प्रासादतलसंस्थितस्य कथमपि श्रुत्वा हाहारवशब्दगर्भीणं मरणनरपतेरिव प्रयाणढक्काम्, संसारराक्षसस्य इव अट्टहासम्, जीवलोकस्य इव प्रमादचरितं मृतक डिण्डिमशब्दं प्रेक्ष्य तत् कृतान्नवशवर्तिनं चतुष्पुरुषधृतकायम्, क्रन्दद्बन्धुजनपरिवारितं शवम्; परमसंवेगभावितमतेः इन्द्रजालसदृशजीवलोकम् अवगम्य धर्मध्यानजलप्रक्षालितपापलेपस्य समुत्पन्ना चिन्ता वयमपि एवमेव मरणधर्माण इति । अहो ! नु खलु एवं विरसावसाने जीवलोके ते धन्याः, ये त्रैलोक्यबन्धुभूते, अचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभे परमर्षिसर्वज्ञदेशिते धर्मे कृतानुरागा अगारवासाद् अनगारतां प्रव्रजन्ति । ततश्च प्राणवध - मृषावाद अदत्ताऽऽदान-मैथुन-परिग्रहविरताः द्विचत्वारिंशदेषणादोष परिशुद्धपिण्डग्राहिणः संयोजनादिपञ्च दोषरहितमित कालभोजिनः, पञ्चसमिताः, त्रिगुप्ताः, निरतिचार व्रतपर भगवान् विजयसेनाचार्य दूसरी जगह चले गये । [ समराइच्चकहा तदनन्तर कुछ दिन बीत जाने पर, जबकि राजा गुणसेन महल पर थे, उन्होंने हा-हाहाकार शब्द से युक्त ले जाये जाते हुए ढक्का का शब्द सुना । उस समय ऐसा लग रहा था मानो यमराज के प्रयाण का ढोल बज रहा हो अथवा संसार रूपी राक्षस का अट्टहास हो । संसार के प्रमादाचरण के समान मरण का सूचक डिण्डिम शब्द हो रहा था । उन्होंने ऐसे शव को देखा जो यम के वशवर्ती था, चार आदमी जिसकी काया को धारण किये हुए थे (उठाये हुए थे) तथा जिसके चारों ओर बन्धुजन क्रन्दन कर रहे थे । धर्मध्यान के जल से जो पापों के लेप को धो रहा था, धर्मध्यान रूपी जल से जिसके पाप धुल गये थे तथा जो अत्यधिक भय से युक्त बुद्धि वाला था ऐसे उस राजा को, इन्द्रजाल के समान संसार को जानकर, इस प्रकार चिन्ता उत्पन्न हुई - हम लोगों का भी इसी प्रकार मरण होगा। नीरस जिसका अन्त होता है, ऐसे संसार में वे धन्य हैं जो तीनों लोकों के बन्धु, अचिन्त्य चिन्तामणि के समान, परमर्षि सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट धर्म में अनुराग कर गृहावस्था से मुनि-अवस्था धारण कर लेते हैं । अनन्तर प्राणिवध झूठ बोलना, चोरी करना, मैथुन तथा परिग्रह से विरक्त होकर बयालीस एषणा दोषों से रहित शुद्ध आहार लेते हैं । संयोजनादि पांच दोषों से रहित, हितकारी, परिमित भोजन को यथेष्ठ समय कर १. अगारवासाओ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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