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________________ पदमो भवो] ६७ णत्यमेव इरियासमियाइपणुवीसभावणोदवेया, अणसणमूगोयरियाइपायच्छित्तविणयाइसबाहिरभितरतबोगुणप्पहाणा मासाइयाणेगपडिमारिणो, विचित्तदन्दाभिग्गहरया, अण्हाणलोयलद्धाबलद्धवित्तिणो निप्पडिकम्मसरीरा समतणमणि लेठुकंचा, कि बहुगा, अट्टारससीलंगसहस्सधारिणो, उवमाईयविबुहजणपसंसियपसमसुहसमेश, अणेगगामाऽऽयरनगरपट्टणमडंबदोणमुहसंनिवेससयसंकुलं विहरिऊण मेइणि, मिच्छत्त पंकमग्गपडिबद्धे य सद्धम्मकहणदिवायरोदएण बोहिऊण भव्वकमलायरे, महातवच्चरणपरिकम्मियसरीरा जिणोवइठेण मग्गेण कालमासे कालं काऊण पाओवगमणेण देहं परिच्चयंति । तओ अहं पि इयाणि इमेण चेवं विहिणा देहं परिच्चइस्सं ति । पत्तो य मए भवसयसहस्सदुल्लहो, सयललोयालोयदिवायरो, सासयसुहप्पयाक्ककप्पपायवो, सयलतेलोक्कनिरुवर्माचतामणी, वियडसंसारजलहिपोयभूओ, धम्मसारही, भयवं विजयसेणावरिओ ति । अओ पवज्जामो धीरपुरिसपरिपालनार्थमेव ईसिमित्यादिपञ्चविंशतिभावनोपेताः, अनशन-ऊनोदरिकादि-प्रायश्चित्तविनयादि-सबाह्याऽभ्यन्तरतपोगुणप्रधानाः मासादिकानेकप्रतिमाधारिणः, विचित्रद्रव्याभिग्रहरताः अस्नान-लोचलब्धाऽपलब्धवृत्तयः, निष्प्रतिकर्मशरीराः, समतृणमणिलेष्टुकाञ्चनाः, किं बहुना अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणः, उपमातीतविबुधजनप्रशंसितप्रशमसुखसमेताः, अनेकग्रामाऽऽकरनगर-पट्टन-मडम्ब-द्रोणमुखसन्निवेशशतसंकुलां विहृत्य मेदिनीम्, मिथ्यात्वपङ्कमार्गप्रतिबद्धांश्च सद्धमकथनदिवाकरोदयेन बोधयित्वा भव्यकमलाकरान्, महातपश्चरणपरिकमितशरीराः जिनोपदिष्टेन मार्गेण कालमासे कालं कृत्वा पादोपगमनेन देहं परित्यजन्ति । ततोऽहमपि इदानीम् अनेन एवं विधिना देहं परित्यक्ष्यामि इति । प्राप्तश्च मया भवशतसहस्रदुर्लभः सकललोकालोकदिवाकरः, शाश्वतसुखप्रदानैककल्पपादपः सकल त्रैलोक्यनिरुपमचिन्तामणिः विकटसंसारजलधिप्रोतभूतः धर्मसारथिः भगवान् विजयसेनाचार्य इति । अतः प्रव्रजामः धीरहैं। पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों का पालन करते हैं, निरतिचार व्रत के पालन करने के लिए ही ईर्यासमिति आदि पच्चीस भावनाओं से युक्त अनशन, ऊनोदरादि (भूख से कम भोजन करना) प्रायश्चित्त, विनयादि बाह्य तथा आभ्यन्तर तपोगुणप्रधान मासा दे का नियम कर अनेक प्रतिमा धारण करनेवाले, नाना प्रकार के द्रव्यों के अभिगृह से रहित, अस्नान, लोंच कठोरवृत्ति वाले; शृंगारादि से रहित शरीरवाले, तृण, मणि, ढेला, स्वर्ण में समान दृष्टिवाले, अधिक कहने से क्या-अठारह हजार शील के भेदों को धारण करनेवाले, अनुपमेय देवताओं (विद्वज्जन) द्वारा प्रशंसित प्रशम सुख से युक्त सैकड़ों ग्राम, आकर, नगर, पट्टन, मडम्ब, द्रोणमुख सन्निवेशों से व्याप्त पथ्वी पर विहार करनेवाले, मिथ्यात्वरूपी कीचड़ के मार्ग में फंसे हुए भव्य कमलों के लिए सद्ध कथनरूपी सूर्य के द्वारा प्रबोध प्राप्त करानेवाले, महान् तपश्चरण से शरीर को संस्कारित करनेवाले, जिनोपदिष्ट मार्ग के अनुसार मृत्यु के समय अनशन कर पादोपगमन नामक अनशनविशेष से देह त्यागते हैं । अतः मैं भी इसी विधि से शरीर का त्याग करूंगा। मुझे भगवान् विजयसेन आचार्य प्राप्त हुए हैं । वे भगवान लाखों भवों में भी दुर्लभ, समस्त संसार को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के तुल्य, शाश्वत सुख का प्रदान करने के लिए एकमात्र कल्पवृक्ष, सम्पूर्ण तीनों लोकों के अनुपमेय चिन्तामणि, भयंकर संसार-समुद्र को पार करने १. मणिमुक्त, २. मिच्छत्तषण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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