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________________ [समराइच्चकहा सेवियं कम्मवणदावाणलं एयस्स समीवे महापव्वज्जं ति। चितिऊण सद्दाविया णेण सुबुद्धिपमुहा मंतिणो । कहिओ य तेसि निययाहिप्पाओ। तओ तप्पसंगओ देवोवलद्धजिणवयणसारेहि भणियं च तेहिं - अहो ! सहापुरिससहावाणुरूवं देवेण मन्तियं । खरपवणचालियनलिणजलमज्झगयचंदबिबचंचलम्मि जीवलोए किच्चमेयं भवियाणं, अहासुहं, मा करेह पडिबंधं ति । अन्नं च देव ! को नाम कस्सइ सुहित्तणं पवज्जिऊणं तं पलित्तजालावलीपरिगयाओ गेहाओ निसरंतं वारेइ? पलित्तं च सव्वदुक्खजलणेण संसारगेहं ति । ता बहुमयं नाम अम्हाणमेयं देवस्स ववसियं। असमत्था य अम्हे बुद्धिविहवेण भवओ मरणं निवारेउ ति। __तओ राइणा एयमायण्णिऊण 'एवमेयं' ति को तुम्भे मोत्तूण मम अन्नो हिओ' त्ति अहिणन्दिऊण सबहुमागं पहट्ठमुहकमलेणं दवावियं आघोसणापुव्वयं महादानं, काराविया भत्तिविभवाणुरूवा जिणाययणाईसु अट्ठाहिया महिमा, सम्माणिओ य पणइवग्गो, बहुमाणिया पउरजणवया, दिन्नं चन्दसेणाभिहाणस्स जेट्टपुत्तस्स रज्जं, पडिवन्ना भावओ पव्वज्जा । 'सुए य इओ गमिस्सामि, जत्थ परुषसेवितां कर्मवनदावानलम्-एतस्य समीपे महाप्रव्रज्याम्--इति चिन्तयित्वा शब्दायिताः तेन सुबुद्धिप्रमुखा मन्त्रिणः। कथितश्च तेषां निजकाभिप्रायः। ततः तत्प्रसङ्गतः एव उपलब्धजिनवचनसारैःणितं च तैः-अहो ! महापुरुषस्वभावानुरूपं देवेन मन्त्रितम् । खरपवनचालितनलिनजलमध्यगतचन्द्रबिम्बचञ्चले जीवलोके कृत्यमेतद् भव्यानाम्, यथासुखम्, मा कुरुत प्रतिबन्धम् - इति । अन्यच्च देव ! को नाम कस्यचिद् सुधीत्वं प्रपद्यतं प्रदीप्तज्वालावलीपरिगेताद् गेहाद् निस्सरन्तं वारयति ? प्रदीप्तं च सर्वदुःखज्वलनेन संसार गेहम् इति । ततो बहुमतं नाम अस्माकम्-एतद देवस्य व्यवसितम् । असमर्थाश्च वयं बुद्धिविभवेन भवतो मरणं निवारयितुम् इति । ततो राज्ञा एतद् आकर्ण्य ‘एवमेतद्' इति 'को युष्मान् मुक्त्वा 'मम अन्यो हितः' अभिवन्द्य सवहमानं प्रहृष्टमुखकमलेन दापितं आघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता भक्तिविभवानुरूपा जिनायतनादिष अष्टाह्निका महिमा, सम्मानितश्च प्रणयिवर्गः, बहुमानिताः पौरजानपदाः, दत्तं चन्द्रसेनाभिधानस्य ज्येष्ठपुत्रस्य राज्यम्, प्रतिपन्ना भावतः प्रव्रज्या । 'श्व इतो गमिष्यामि, यत्र भगवान् के लिए जहाज के तुल्य तथा धर्मसारथी हैं। अतः इन्हीं के समीप धीरपुरुषों के द्वारा सेवित कर्मरूपी वन के लिए दावाग्नि के समान दीक्षा धारण करता हूँ, ऐसा सोचकर उन्होंने सुबुद्धि प्रमुख मन्त्रियों को बुलाया। उनसे अपना अभिप्राय कहा । महाराज के प्रसंग से ही जिन्होंने जिनेन्द्रवचनों का सार प्राप्त किया था ऐ कहा, "अहो ! महापुरुषों के स्वभाव के अनुरूप महाराज ने विचार किया। तीक्ष्ण पवन के द्वारा चालित कमलिनी के समान अथवा जल के मध्य स्थित चन्द्रबिम्ब के समान चंचल संसार में भव्य लोगों का यह कर्तव्य है, सुखानुरूप है। इसमें रुकावट नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि महाराज ! कौन ऐसा है जो जलती हुई अग्नि से घिरे घर से निकलते हुए, अमृतत्व को प्राप्त व्यक्ति को रोकता है ? समस्त दुःखरूपी अग्नि से संसाररूपी घर जल रहा है । अतः महाराज ने जो यह निश्चय किया उसका हम आदर करते हैं। बुद्धिवैभव से हम लोग आपको मरण से छुटकारा दिलाने में असमर्थ हैं।" तब राजा ने सुनकर, “यह ऐसा ही है, आप लोगों को छोड़कर मेरा दूसरा कौन हितकारक है" इस प्रकार सम्मानपूर्वक अभिनन्दन कर प्रसन्नमुखकमल होकर घोषणापूर्वक महादान दिलाया। जिनमन्दिरादिक में भक्ति और वैभव के अनुरूप अष्टाह्निका पूजा करायी। स्नेही व्यक्तियों का सम्मान किया, नगरवासी और देशवासी लोगों का सम्मान किया, चन्द्रसेन नामक ज्येष्ठपुत्र को राज्य दिया और भावपूर्वक दीक्षा धारण की। कल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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