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________________ २४६ प [समराहच्चकहा विय परहियसंपायणामेत्तफलजम्मस्स ईदिसि अवत्थ त्ति। अहवा थेवमेयं । एणट्ठो वि ससी कालजोगओ अचिरेणं चेव संपुषणयं पावइ, विसमद साविभाए य वट्टमाणा देवा वि परिकिलेसभाइणो हवंति, किमंग पुण मच्चलोयवासो जणो । ता न तए संतप्पियव्वं । आवयाए वज्जकढिणहियया चेव महापुरिसा हवंति । उवयारिणी य आवया; जओ नज्जइ इमोए सज्जणासज्जगविसेसो, लक्खिज्जए अणुरत्तेयर परियणो, गम्मति अत्तगो भागधेणि, निवडइ निच्चपच्छन्नो पुरिसयारो। नाऽणलमसंपत्तरस कालागरुस्त सव्वहा गंधोवलद्धी हवइ । 'न चिरकालठाइगी य एसा आक्य' त्ति लक्खगानो अवगच्छामि त्ति। अन्नं च -- भवओ विहवो व्व साहरणो चेव मे एस खणमेत्तपीडागरो परिहिलेसो। परिवत्तसव्वसंगो य संपयमहं । ता कि ते उवारेमि? तहा वि गेण्हाहि एवं पढियमेत्तसिद्धं तक्खयाहिदटूस्स वि पाणधारयं भय या विणयागंदणेण पणीयं गारुडमतं ति। भविस्स: य इमिगा वि भनओ सविहवेग विय परमत्यसंपायगं ति । धणेण चितियं - अहो से अकारणवच्छलत्तणं। अहवा दुहियसत्तपच्छलो वेव मुगिजणो होइ। उ(अ)वियाक ओवयारो य कहमहमिमस्स संतियं पादपस्येव परहितसम्पादनमात्रफल जन्मन ईदृशी अवस्थेति । अथवा स्तोकमिदम् प्रनष्टोऽपि शशी कालयोगतोऽचिरेणैव सम्पूर्णतां प्राप्नोति । विषमदशाविभागे च वर्तमाना देवा अपि परिक्ले शभाजो भवन्ति, किमङ्ग पुनमर्त्यलोकवासो जनः । ततो न त्वया सन्तपितव्यम् । आपदि वज्रकठिनहृदया एव पुरुषा भवन्ति । उपकारिणी चापद्, यतो ज्ञायतेऽनया सज्जनासज्जन विशेषः, लक्ष्यते अनुरक्तेतरपरिजनः, गम्यन्ते आत्मनो भागधेयानि, निष्पद्यते नित्यप्रछन्नः पुरुषकारः। नानलमसम्प्राप्तस्य कालागुरोर्गन्धोपलब्धिर्भवति । 'न चिरकालास्थायिनी चैषाऽऽपद्' इति लक्षणतोऽवगच्छामीति । अन्यच्च-भवतो विभव इव साधारण एव मे एष क्षणमात्रपीडाकरः परिक्लेशः । परित्यक्तसर्वसङ्गश्च साम्प्रतमहम् । ततः किं तवोपकरोमि ? तथापि गृहाणैतं पठितमात्रसिद्धं तक्षकाहिदष्टस्यापि प्राणधारकं भावता धिनतानन्दनेन प्रणीतं गारुडमन्त्रमिति । भविष्यति चानेनापि भवतः स्वविभवेनेव परार्थसम्पादन मिति । धनेन चिन्तितम्-अहो!अस्याकारणवत्सलत्वम् अथवा दुःखितसत्त्ववत्सल एव मुनिजनो भवति । अपि च-'अकृतोपकारश्च कथमहमस्य सत्कं गृह्णामि' इति चिन्तयित्वा भणितं च है, लक्ष्मी चंचल होती है ऐसी जनश्रुति सत्य है । घर में रहने पर दुःख और परिश्रम की बहुलता होती है । जिसके कारण कलावक्ष के समान दूसरे का हित करना ही जिसके जन्म का फल है, ऐसे आपकी भी यह अवस्था है अथवा यह बहुत छोटी-सी बात है। क्षीणप्राय हो जाने पर भी चन्द्रमा समय के योग से शीघ्र ही सम्पूर्णता को प्राप्त कर लेता है । विषम दशा के विभाग में वर्तमान देव भी दुःख के पात्र होते हैं, मनुष्यलोक के निवासी लोगों की तो बात ही क्या है ? अत: आपको दुःखी नहीं होना चाहिए । आपत्ति में पुरुष वज्र के समान कठोर हृदय वाले होते हैं। आपत्ति उपकारी है, जिससे सज्जन और असज्जन में भेद का पता लग जाता है। अनुरक्त और अननुरक्त परिजन दिखाई पड़ जाते हैं, अपने भाग्यों का "ता चलता है, नित्य छिपा हुआ पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। अग्नि से संयोग हुए बिना कालागरु गन्ध की प्राप्ति नहीं होती है । 'यह आपत्ति चिरकाल तक ठहरने वाली नहीं है, ऐता मैं लक्षण से जान रहा हूँ। दूसरी बात यह है कि आपके वैभव के समान मेरे लिए सामान्यरूप से क्षणमात्र पीड़ा पहुंचाने वाला दुःख है । मैं इस समय समस्त आसक्तियों का त्यागी हूँ, अतः आपका क्या उपकार करूं? तो भी भगवान् गरुड के द्वारा प्रणीत इस गारुड यन्त्र को लो, इसके पढ़ने मात्र से ही तक्षक सर्प के द्वारा काटा गया प्राणी भी जीवित हो जाता है। अपने वैभव के अनुरूप इसी से ही आप दूसरे का प्रयोजन साधने वाले हो जायेंगे।" धन ने सोचा ...- इसका अकारण स्नेह आश्चर्यकारक है अथवा मुनिजन दुःखी प्राणी पर प्रेमभाव रखने वाले होते हैं । दूसरी बात यह भी है कि बिना इनका कुछ उपकार किये हुए मैं इनकी वस्तु कैसे ग्रहण कर लूं-ऐसा १.उवयाक...-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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