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बजली भवा]
२४५ चितिऊण उट्रिओ पायवसमीवाओ। गओ थेनं भमिभागं । दिदा य तेणं वहणभंगविवन्नाए सावत्थीनर इस्स सोहलदीवगामिणोए ध्याचेडियाए [तीसे चेव पिउसंतिगा चेडिया तीसे समप्पिया भंडारिणीए, विन्नम्मि य तम्मि वहणए समद्दवीईहिं घत्तिया कूले पंचत्तमुवगया सा चेडी तमुद्देसागएण दिट्ठा य तेणं तोसे'] उत्तरीयदेसम्मि तमुद्दे समुज्जोवयंती तेल्लोक्कसारा नाम रयणावलि त्ति । अवुज्झमाणेण य इमं वृत्तंतं 'परकेरिगाए वि इमीए ववहरिऊण पुणो पुणो इणमेव उद्दिसिय कुसलपक्खं करेस्सामि' त्ति चितिऊण गहिया य तेणं । पयट्टो विसयसंमुहं । दिट्ठो य तेणं जूययरवइयरवि मोइओ पवन्नकावालियवओ सुसिद्धगारुडमंतो मंतसाहणत्थं चेव समुद्दतडमहिवसंतो महेसरदत्तो । तेण वि एसो त्ति पंचभिन्नाओ। तेणं भणिओ य-सत्थवाहपुत्त, कुओ तुमं, कहं वा ते ईइसी अवस्था ? तओ 'न गेहदुच्चरियमन्नस्स पयासिउं जुज्जइ' ति चितिऊण भणियं धणेणं । जलनिहीओ अहं, वहणविओगओ ममेयं ईदिसी अवत्थ ति। महेसरदत्तण भणियं अवहिओ विही उन्नयाणं भंगेसु, सुचंचला सिरि' ति सच्चो लोयवाओ। किलेसायासबहुलो गिहवासो, जण भवओ वि कप्पपायवस्स उत्थितः पादपसमोपात् गतः स्तोकं भूमिभागम् । दृष्टा च तेन वहनभङ्गविपन्नायाः श्रावस्तीनरपतेः सिंहलद्वोपगामिन्या दुहितचेटिकायाः [तस्या एव पितृसत्का चेटिका तस्याः समर्पिता भाण्डागारिण्याः, विपन्ने च तस्मिन् वहनके समुद्रवोचिभिः क्षिप्ता कूले पञ्चत्वमुपगता सा चेटी, तमुद्देसमागतेन दृष्टा च तेन तस्याः] उत्तरीयदेशे तमुद्देशमुद्योतयमाना त्रैलोक्यसारा नाम रत्नावली इति । अबुध्यमानेन चेमं वृत्तान्तं परकीययाऽप्यनया व्यवहार्य पुनः पुनरिदमेवाद्दिश्य कुशलपक्षं करिष्यामि' इति चिन्तयित्वा गृहीता तेन । प्रवृत्तो विषयसम्मुखम् । दृष्टश्च तेन घ्तकारव्यतिकरविमोचितःप्रपन्नकापालिकवतः सुसिद्धगारुडमन्त्रो मन्त्रसावनार्थमेव समुद्रतटमधिवसन् महेश्वरदत्तः। तेनापि एष इति प्रत्यभिज्ञातः । तेन भणितश्च-सार्थवाहपुत्र!कुतस्त्वम्, कथं वा ते ईदशी अवस्था ? ततो 'न गेहदुश्चरितमन्यस्य प्रकाशितुं युज्यते' इति चिसयित्वा भणितं धनेन-जलनिधिताऽहम; वहनवियोगतो ममेयमोदशी अवस्था इति । महेश्वरदत्तेन भणितम्-'अवहितो विधिरुन्नतानां भङ्गष, सुचञ्चला श्री.'-इति सत्यो लोकवादः। क्लेशायासबहुलो गेहवासः, येन भवतोऽपि कल्प
विचारकर पेड़ के समीप से उठ गया। थोड़ी दूर गया । उसने सिंहलद्वीप की ओर जाने वाली श्रावस्ती के राजा की पुत्री की दासी, जो कि जहाज टूट जाने के कारण मर गयी थी, के दुपट्टे में उस स्थान को चमकाती हुई तीनों लोकों की सारभूत रत्नावली को देखा। (पुत्री के पिता ने साथ में दासी भेजी थी, जिसे भण्डारी ने रत्नावली दी थी, जहाज टूट जाने पर समुद्र की तरंगों ने उसे किनारे पर फेंक दिया और वह मर गयो, उस स्थान पर आकर इसने उसे देखा)। इस वृत्तान्त को न जानने के कारण दूसरे की होने पर भी इससे व्यापार करूँगा, इस प्रकार पुन:-पुनः सोचकर उसने रत्नावली ले ली। देश के समीप चला। उसने जुआरियों से सम्बन्ध छोड़कर कापालिकव्रत को धारण किये हुए महेश्वरदत्त को समुद्र के किनारे निवास करते हुए देखा। उसे गारुडमन्त्र भली प्रकार सिद्ध हो गया था और मन्त्रसाधन हेतु समुद्र के तट पर रह रहा था । उसने भी इसे पहचान लिया । उसने कहा- "वणिक्पुत्र!तुम कहाँ से ? तुम्हारी यह अवस्था कैसे है ?" अनन्तर घर के पत्नी के) दुश्चरित को दूसरे पर प्रकट नहीं करना चाहिए-ऐसा सोचकर धन ने कहा--"मैं समुद्र से आया हूँ, जहाज से वियुक्त होने के कारण मेरी यह अवस्था है।" महेश्वरदत्त ने कहा-"उन्नत वस्तुओं या व्यक्तियों को नष्ट करने में भाग्य सावधान
१. अयं कोष्ठान्तर्गत: पाठोऽधिक: ख-पुस्तक हरितालेन परिमाजितश्च ।
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