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________________ घनत्यो भवो] २४७ गेण्हामि त्ति चितिऊण भणियं च तेणं- भयवं, अणुग्गिहीओ म्हि; मम व सलचितणं चेव भयवओ उवयारो। न तवस्सिजणाणुग्गिहीरो अकल्लागं पावइ । पमाइगो य गिहत्था हवंति, उग्गाओ य मंतदेवयाओ। ता अलं मे मंतेण । महेतरदत्तेग भणियं सोमदेवओ निप्पच्चवाओ क्खु एसो । धणेण भणियं-तहा वि अलमिमेणं ति। महेसरदत्ते ग चितियं-अहो महाणुभावया सत्थवाहपुतस्स । नणमहमणेण न पच्चमिन्नाओ, तओ अकोवयारित्तणेण उवरोहसीलयाए न एवं गेण्हइ । ता पयासेमि से अप्पाणयं । चितिऊणं भणियं च तेण-सत्थवाहपुत्त, सुमरेहि मं तामलित्तीए जययरवइयरविमोइयं महेतरदत्तं । ता अलभन्नहा वियपिएणं। गेण्हाहि एवं, अन्नहा महई मे पीडा समुप्पज्जइ ति। तओ सुमरिऊण वृत्तंतं से 'कयत्थो एसो' ति चितिऊण 'हवइ महई एयस्त पीड' त्ति अवयच्छ्यि तदुधरोहभीरुणा भणियं धणेगं-भयवं, जं तुब्भे आगवेह । तओ दिनो महेसरदत्तेण मंतो, गहिओ धणेणं । गया तवोवणं । फणसादीएहि कया पा०.वित्ती। ठिओ एगदिवसं । अहिवंदिऊण महेसरदत्तं फेसिओ य तेणं पयट्टो विसयसंमुहं । नारंगाइसंपाइयाहारो य पयत्तगोवियरयणावली कालक्कमेण पत्तो साथि ति। तेन-भगवन् ! अनुगृहीतोऽस्मि, मम कुशलचिन्तनमेव भगवत उपकारः । न तपस्विजनानुगहीतोऽकल्याणं प्राप्नोति । प्रमादिनश्च गृहस्था भवन्ति, उग्राश्च मन्त्रदेवताः, ततोऽलं मे मन्त्रण ? महेश्वरदत्तेन भणितम्--सौम्यदेवतो निष्प्रत्यवायः खल्वेषः । धनेन भणितम्-तथापि अलमनेनेति । महेश्वरदत्तेन चिन्तितम्-अहो! महानुभावता सार्थवाहपुत्रस्य, नूनमहमनेन न प्रत्यभिज्ञातः, ततोऽकतोपकारित्वेनोपरोधशीलतया नैतं गलाति। ततः प्रकाशयामि अस्यात्मानम-इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन–सार्थवाहपुत्र! स्मर मां ताम्रलिप्त्यां द्यूतकारव्यतिकरविमोचितं महेश्वरदत्तम्, ततोऽलमन्यथा विकल्पितेन । गहाणतम्, अन्यथा महती मे पोडा समुत्पद्यते-इति। ततः स्मृत्वा वृत्तान्तं तस्य 'कृतार्थ एषः' इति चिन्तयित्वा 'भवति महती एतस्य पीडा' इत्यवगत्य तदुपरोधभीरुणा भणितं धनेन-भगवन्तः ! यद् यूयमाज्ञापयत । ततो दत्तो महेश्वरदत्तेन मन्त्रः, गृहोतो धनेन । गतौ तपोवनम् । पनसादिभिः कृता प्राणवृत्तिः। स्थित एकदिवसम् । अभिवन्द्य महेश्वरदत्तं प्रेषितश्च तेन प्रवृत्तो विषयसम्मुखम् । नारङ्गादिसम्पादिताहारश्च प्रयत्नगोपितरत्नावलिः कालक्रमेण प्राप्तः श्रावस्तीमिति । सोचकर उसने कहा - "भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ। मेरे प्रति सद्कामना ही भगवान् का उपकार है । तपस्विजनों से अनुगृहीत व्यक्ति अकल्याण को प्राप्त नहीं होता है और गृहस्थ लोग प्रमादी होते हैं तथा मन्त्र देवता उग्र होते हैं अतः मुझे मन्त्र मत दीजिए।" महेश्वरदत्त ने कहा---"इस मन्त्र के देवता सौम्य और विघ्न न करने वाले हैं।" धन ने कहा-"तो भी यह मत दीजिए।" महेश्वर दत्त ने सोचा-वणिकपुत्र की महानुभावता आश्चर्यकारक है, निश्चित ही इसने मुझे पहचाना नहीं है अत: उपकार न करने की रुकावट के कारण यह इसे नहीं लेता है । अतः अपने आपको इस पर प्रकट करता हूँ-ऐसा विचार कर उसने कहा-“सार्थवाह पुत्र ! मुझे ताम्रलिप्ती में जुआरियों के संसर्ग से छुड़ाया हुआ महेश्वरदत्त स्मरण करो (जानो) अत: दूसरे प्रकार से मत सोचो। इसे लो, अन्यथा मुझे बहुत पीड़ा उत्पन्न होगी।" ऐसा जानकर उसके अनुग्रह से डरने वाले धन ने कहा - "भगवन!जो आज्ञा दें।" तब महेश्वरदत्त ने मन्त्र दिया, धन ने ले लिया। दोनों तपोवन गये । कटहल आदि का भोजन किया । एक दिन ठहरे, महेश्वरदत्त की वन्दना कर उसके द्वारा भेजा जाकर वह देश की ओर चल पड़ा। नारंगी आदि का आहार कर प्रयत्नपूर्वक रत्नावली को छिपाकर कालक्रम से वह श्रावस्ती पहुंचा। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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