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________________ २७८ [समराइण्यकहा यारिणी; अवि य ज तुम पवजिहिसि, अहं पि तं चेव' त्ति निवेइयं चेव अज्जउत्तस्स । तओ मए चितियं । अहो निब्भराणुरायया ममोवरि देवीए, अहो महत्थत्तणं, अहो विवेगो, अहो चित्तणुयया, अहो छंदाणुक्त्तणं, अहो सससुहदुक्खया, अहो एगसहावत्तणं' ति । एत्थंतरम्मि निवेइओ मे कालो मंगलपाढएहिं । पढियं च तेहि । आसाइऊण उययं कमेण परियट्टिऊण य पयावं । उज्जोविऊण भुवणं अत्थमइ दिवायरो एण्हि ॥३७४॥ तओ मए चितियं-धिरत्थु जीवलोयस्स; एयस्स वि दिणयरस्स एगदिवसम्मि चेव एत्तिया अवत्थ त्ति। तओ अहं अस्थाइयामंडवम्मि कंचि कालं गमेऊण मियंकजोण्हापसाहियभवणभवणे उद्धामकामिणीयणवियंभियमयणपसरे य पओसे गओ विइण्णमणिरयणमंगलपदीवसणाहं कूट्रिमविमकवरसरहिकसमपयरं बहलकत्थरियाविलित्तविमलमणिभित्ति पवरदेवंगवत्थवोक्खारियकणयखभं उज्जलविचित्तवत्थविरइयवियाणयं जरढविदुमायंबघडियपल्लंकसणाहं अत्थुरियपवरतूलीविइण्णअपि च यत्त्वं प्रजिष्यसि, अहमपि च तदेवेति निवेदितमेवार्यपुत्रस्य । ततो मया चिन्तितमअहो ! निर्भरानुरागता ममोपरि देव्यः, अहो ! महार्थत्वम्, अहो ! विवेकः, अहो ! चित्तानुगता, अहो ! छन्दोऽनुवर्तनम् , अहो ! समसुखदुःखता, अहो ! एकस्वभावत्वमिति । अत्रान्तरे निवेदितो मे कालो मङ्गलपाठकैः । पठितं च तैः आस्वाद्योदकं क्रमेण परिवर्त्य च प्रतापम् । उद्योत्य भुवनमस्तमेति दिवाकर इदानीम् ॥३७४॥ ततो मया चिन्तितम्-धिगस्तु जीवलोकम्, एतस्यापि दिनकरस्य एकदिवसे एव एतावत्यवस्थेति । ततोऽहमास्थानिकामण्डपे कञ्चित् कालं गमयित्वा मृगाङ्कज्योत्स्नाप्रसाधितभव भवने उद्दामकामिनीजनविजम्भितमदनप्रसरे च प्रदोषे गतो विकीर्णमणिरत्नमङ्गलप्रदीपसनाथं कूट्रिमविमुक्तवरसुरभिकुसुमप्रकरं बहलकस्तूरिकाविलिप्त विमलमणिभित्तिम, प्रवरदेवाङ्ग(देवदूष्य) वस्रविभूषितकनकस्तम्भम्, उज्ज्वलविचित्रवस्त्रविरचितवितानकम्, जरठविद्रुमाताम्रघटितपल्यङ्कके विपरीत आचरण करने वाली नहीं हूँ । पुनश्च जब तुम दीक्षित होगे तब मुझे भी बतलाना।" तब मैंने सोचा-“ओह ! देवी का मेरे प्रति कितना गाढ़ अनुराग है । (उसका) महान् प्रयोजन, विवेक, चित्त का अनुसरण, इच्छा का अनुसरण, सुख-दुःख में समानभाव तथा एक जैसा स्वभाव आश्चर्यकारक है। इसी बीच मंगल पाठ करने वालों ने मुझे समय की सूचना दी। उन्होंने पढ़ा--- क्रम से जल पीकर प्रताप को चारों ओर फैलाकर, संसार को प्रकाशित कर इस समय सूर्य अस्त हो रहा है॥३७४|| तब मैंने विचार किया---'संसार को धिक्कार इस सूर्य की दिन भर में इतनी अवस्थाएँ होती हैं।' तब मैं राजसभा (आस्थानिका मण्डप) में कुछ समय बिताकर, चन्द्रमा ने चांदनी के द्वारा जब संसार रूपी भवन को सजा दिया. उत्कट कामिनियों के द्वारा जब काम का विस्तार बढ़ा दिया गया, ऐसे सायंकाल के समय निवासगह को गया । वह निवासगृह फैलाये हुए मणि और रत्ननिर्मित मंगल दीपकों से युक्त था, फर्श पर सुन्दर सुगन्धित फूलों का समूह छोड़ा गया था, स्वच्छ मणिनिर्मित दीवारों पर प्रचुर कस्तूरी का लेप किया गया था, स्वर्णमय खम्भे उत्कृष्ट दिव्य वस्त्रों से विभूषित थे, उज्ज्वल और अनेक प्रकार के वस्त्रों का चंदोवा बना हुआ १. एकसारत्तणं-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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