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उत्यो भवो] त्ति । ताओ य मे रज्जं दाऊण पवन्नो समणत्तणं । अहमधि संपत्तसम्मत्तो नयणावलीनेहमोहियमणो रज्जसणाहं विसयसुहमणुहवंतो चिट्ठामि, जाव आगओ ने पलियच्छलेण धम्मदूओ। निवेइओ य मे सारसियाभिहाणाए नयणावलीचेडियाए । तओ समुप्पन्नो मे निव्वेओ। चितियं मए । अहो चंचलया जीवलोयस्स, अहो परिणामो पोग्गलाणं, अहो असारं मणुयत्तणं, अहो पहवइ महामोहो । अवि य
अणुदियहं वच्चंताणिऽमाइ कह कि जणो न लक्खेइ। जोयस्स जोव्वणस्स य दियह निसाख डखंडाइं ॥३७१॥ दियहनिसाघडिमालं आउयसलिलं जणस्स घेत्तूण । चंदाइच्चवइल्ला कालरहट्ट भमाति ॥३७२।। झीणे आउयसलिले परिसुस्संतम्मि देहसस्सम्मि।
नत्थि हु कोवि उवाओ तह वि जणो पावमायरइ ॥३७३॥ अलं ता मे पमाएणं । पवज्जामो पुटवपुरिससेवियं समणत्तणं । साहिओ निययाहिप्पाओ नयणावलीए । भणियं च तीए- अज्जउत्त, ज वो रोयइ त्ति । न खलु अहं अज्जउत्तस्स पडिकूलरिति । तातश्च मे राज्यं दत्त्वा प्रपन्नः श्रमणत्वम् । अहमपि सम्प्राप्तसम्यक्त्वो नयनावलिस्नेहमोहितमना राज्यसनाथं विषय सुखमनुभवन् तिष्ठामि । यावदागतो मे पलितच्छलेन धर्मदूतः । निवेदितश्च मह्य सारसिकाभिधानया नयनालिटिकया। ततः समुत्पन्नो मम निर्वेदः । चिन्तितं च मया-अहो ! चञ्चलता जोवलोकस्य, अहो ! परिणामः पुद्गलानाम्, अहो ! असारं मनुजत्वम , अहो ! प्रभवति महामोहः । अपि च
अनूदिवसं व्रजन्ति इमानि कथय कि जनो न लक्षयति । जीवितस्य यौवनस्य च दिवसनिशाखण्डानि ॥३७१।। दिवसनिशाघटीमालमायुःसलिलं जनस्य गृहीत्वा । चन्द्रादित्यवलीवदो कालारहट्ट भ्रामयतः ।।३७२॥ क्षीणे आयुःसलिले परिशष्यति देहसस्ये।
नास्ति खलु कोऽप्युपायः तथापि जनः पापमाचरति ॥३७३।। अलं ततो मम प्रमादेन, प्रपद्यामहे पूर्वपुरुषसेवितं श्रमणत्वम् । कथितो निजकाभिप्रायो नयनावल्यै । भणितं च तया-आर्यपुत्र ! यत् तुभ्यं रोचते, न खल्वहमार्यपुत्रस्य प्रतिकूलकारिणी, देकर मुनि हो गये । मैं भी सम्यक्त्व प्राप्त कर नयनावली के स्नेह से मोहित मन वाला होकर राज्य के साथ विषयसुख का अनुभव करने लगा। तभी सफेद वाल के साथ धर्मदूत आया। सारसिका नामक नयनावली की दासी ने मुझसे निवेदन किया । तब मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया। मैंने सोचा-ओह ! संसार चंचल है, पुद्गलों का परिणाम आश्चर्यजनक है, ओह ! मनुष्यत्व साररहित है, महान् मोह अपना पराक्रम दिखला रहा है । कहा भी है
जीवन, यौवन और ये रात्रि-दिन के भाग प्रतिदिन व्यतीत हो रहे हैं, कहो मनुष्य क्यों नहीं लक्ष्य करता है ? (चेतता है ?) दिन-रात्रि रूपी घड़ियों का समह तथा मनुष्य के आयु रूपी जल को लेकर चन्द्र और सूर्य रूपी दो बैल मृत्यु रूपी रहट को घुमा रहे हैं । आयु रूपी जल के नष्ट हो जाने पर शरीर रूपी धान्य सूख जाता है। इसका कोई उपाय नहीं है, फिर भी मनुष्य पाप का आचरण करता है ॥३७१-३७३।।
अतः अब प्रमाद करना व्यर्थ है, पूर्वजों के द्वारा सेवित मुनि धर्म को प्राप्त होता हूँ। (सुरेन्द्रदत्त ने) अपना अभिप्राय नयनावली से कहा। नयनावली ने कहा-"आर्यपुत्र ! जो आपको रुचिकर लगे, मैं आर्यपुत्र
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