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________________ पंचमी भयो लोयं न चएंति परिवज्जिउं परम यसाहयं समणत्तणं। पवन्नवयाणं पि य एए असंपत्त केवलभावाणं न मुयंति मग्गं, विमुक्कजिणवयणमग्गे अहिहवंति जीवे न उण इयरे त्ति । मणोरमरुक्खच्छायाओ सपडिबंधाओ थोपसुपंडयसंसत्ताओ वसहीओ।परिसडियपंडुपत्ताओ य अणवज्जवसहीओ। मग्गतडत्था य हक्कारणपुरिसा परलोयविरुद्धोवएसदायगा पासत्थाई अकल्लाणमित्ता, सुसत्थिया उण अद्वारससीलंगसहस्सधारिणो समणा। दवग्गी कोहो, पवओ माणो, वंसकुडंगी माया, खड्डोलओ लोहो । मणोरहबंभणो इच्छाविसेसो, थेवपूरणे वि इमस्स अपज्जवसाणगमणं। किपागफलाणि सहादओ विसया । सोओण्हखुहापिवासाइया य बावीसं परीसहा पिसाया। विरसं भोयणं अणवज्ज महयरवित्तीए एसणिज्ज । अपयाणयं सया अप्पमाओ। जामदुयगमणं च सज्झायकरणं । एवं च वट्टमाणेहि देवाणुप्पिया, सिग्यमेव भवाडवी लंधिज्जइ, लंघिता य तमेगंतमणाबाहं सिवपुरं पाविज्जइ ति। तओ संजायसम्मत्तदेसविरइपरिणामेण भणियं जयकुमारेण-भय, एवमेयं न अन्नहा । प्राणिनः प्रेक्षमाणा अपि मृगेन्द्रजालसदशं जीवलोकं न शक्नुवन्ति प्रतिपत्त परमपदसाधकं श्रमणत्वम्। प्रपन्नवतानामपि चेतौ असम्प्राप्तकेवलभावनानां न मुञ्चतो मार्गम, विमुक्तजिनवचनमार्गान अभिभवतो जीवान् न पुनरितरानिति । मनोरमवृक्षच्छायाः सप्रतिबन्धः स्त्रीपशुषण्डकसंसक्ता वसतयः। परिशटितपाण्डुपत्राश्चानवद्यवसतयः। मार्गतटस्थाश्च आकारणपुरुषाः परलोक विरुद्धोपदेशदायकाः पार्श्वस्थादयोऽकल्याणमित्राणि, सुसाथिका: पुनरष्टादशशोलाङ्गसहस्रधारिणः धमणाः। दावाग्निः क्रोधः, पर्वतो मानः, वंशकुडङ्गी माया, गर्तालयो लोभः । मनोरथब्राह्मण इच्छाविशेष:, स्तोकपूरणेऽपि अस्य (गर्तालयस्य) अपर्यवसानगमनम् । किपाकफलानि शब्दादयो विषयाः। शीतोष्णक्षतपिपासादयश्च द्वाविंशतिः परिषहा पिशाचाः । विरसं भोजनमनवद्यं मधुकरवृत्त्या एषणीयम् । अप्रयाणकं सदाऽप्रमादः । यामद्विकगमनं च स्वाध्यायकरणम् । एवं च वर्तमानैर्देवानुप्रिय ! शीघ्रमेव भवाट वो लङ्घयते, लङ्घित्वा च तदेकान्तमनाबाधं शिवपुरं प्राप्यते इति । ततः सजातसम्यक्त्वदेशविरतिपरिणामेन भणितं जयकुमारेण-भगवन् ! एवमेतद् नान्यथा। करने वाले राग-द्वेष हैं। उन दोनों से अभिभूत हुए प्राणी मृगेन्द्रजाल के समान संसार को देखते हुए भी परमपद साधक श्रमणत्व को पाने में समर्थ नहीं होते हैं। व्रत धारण करने पर भी ये दोनों केवल भाव को न प्राप्त करने वालों के मार्ग को नहीं छोड़ते हैं, जिन्होंने जिन-मार्ग को छोड़ दिया है, उन्हीं जीवों को पराजित करते हैं, दूसरों को नहीं। मनोरम वृक्षों की छाया रुकावट से युक्त स्त्री, पशु, नपुंसकों के साथ निवास करना है। पीले और सड़े पत्ते निर्दोष निवास हैं । मार्ग के किनारे के बुलाने वाले पुरुष परलोक के विरुद्ध उपदेश देने वाले पार्श्वस्थ आदि अकल्याण मित्र हैं। अच्छे व्यापारी अठारह हजार शील के भेदों को धारण करने वाले श्रमण हैं । दावानल क्रोध है, पर्वत मान है, वंशकुडंगी (बांस की जाली) माया है, गर्तालय लोभ है। मनोरथ करने वाला ब्राह्मण इच्छा विशेष है, थोड़ा भरने पर भी इस गर्तालय का अन्त नहीं आयेगा। किंपाक फल शब्दादि विषय हैं। शीत, उष्ण, प्यास आदि बाईस परीषह पिशाच हैं । नीरस और निर्दोष भोजन की मधुकरी वृत्ति से कामना करनी चाहिए। सदा न गमन अप्रमाद है। दो प्रहर चलना स्वाध्याय करना है। इस प्रकार चलने पर हे देवानप्रिय ! शीघ्र ही संसाररूपी वन पार हो जाता है और इसे पारकर वह एकान्त, अनाबाध मोक्ष प्राप्त होता है। ___ अनन्तर, सम्यक्त्व के देशविरति रूप परिणाम जिसके उत्पन्न हुए हैं ऐसे जयकुमार ने कहा-'भगवन् ! 1, सणंकुमारं-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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