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________________ [समरामकहा महाकाया' कराला पिसाया खणं खणमाहिद्दवन्ति । ते वि य ण गणेयव्वा । भत्तपाणं च एत्थ विभागओ परिभुज्जमाणमईव विरसं दुल्लहं च हवइ ति [विवागआ उणमईव सरसं जहा बालस्स य जवाभेसजं] । तत्थ न विसाइणा होयव्वं । अपयाणयं न कायव्वं ति, रयणीए वि जामदुयं नियमेण वहियव्वं । एवं च गच्छमाहि देवाणुप्पिया, खिप्पमेवाडवी घिज्जइ, चित्ता य तमेगंतदोगच्च वज्जियं निवुइपुरं पाविज्जइ ति। तत्थ न होंति पुणो केइ किलेसोबद्दवा। एस दिटुंतो, इमो उण उणओ। एत्थ सत्थवाहो तिलोचितामणी सुरासुरपूइओ अरहा। घोसणं तु अक्खेवणिविखेवणिसंवेयणिनिव्वेयणिलक्खणा धम्मकहा। सत्थिया य संसाराडविलंघणेण निव्वुइपुरपत्थिया जीवा अडवो पुण नारयतिरियमणुयदेवगइलक्खणो संसारो। उज्जयपंथो साहुधम्मो; मणागमणुज्जुओ सावधम्मो, सो वि य पज्जते साहुधम्मफलो चेव इच्छिज्जइ। न य भावओ अपडिवन्नसाहुधम्मा संसारावि लंघेति । इच्छियपुरं पुण जम्मजरामरणरोगसोगाइउवद्दवरहियं सिवपुरं । बग्घसिंघा य मोक्खविग्घहेयवो रागदोसा। अभिभया य हि पाणिणो पेच्छमाणा वि माइंदजालसरिसं जीव कानाम्, न प्रेक्षितव्यानि न वा भोवतव्यानि । द्वाविंशतिश्चात्र घोरा महाकायाः करालाः पिशाचाः क्षणं क्षणमभिद्रवन्ति । तेऽपि च न गणयितव्याः । भक्तपानं चात्र विभागतः परिभज्यमानमतीव विरसं दुर्लभं च भवतीति (विपाकतः पुनरतीव सरसं यथा बालस्य च इन्द्रयवभैषज्यम्)। तत्र न विषादिना भवितव्यम् । अप्रयाणकं न कर्तव्यमिति । रजन्यापि यामदुगं नियमेन वोढव्यम् । एवं च गच्छद्भिः देवानुप्रिया: ! क्षिप्रमेवाटवो लंध्यते, लङ्गित्वा च तदेकान्तदौर्गत्यजितं निर्व तिपुरं प्राप्यते इति । तत्र न भवन्ति पुनः केऽपि क्लेशोपद्रवाः । एष दष्टान्तः, अयं पुनरुपनयः। अत्र सार्थवाहस्त्रिलोकचिन्तामणिः सुरासुरपूजितोऽर्हन् । घोषणं तु आक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेदनी-निवेदनीलक्षणा धर्मकथा। साथिकाश्च संसाराटवालङ्घनेन निवंतिपुरप्रस्थिता जीवाः । अटवी पुन र कतिर्यग्मनुजदेवगतिलक्षणः संसारः । ऋजुकपन्थाः साधुधर्मः मनागनजुक: श्रावकधर्मः, सोऽपि च पर्यन्ते साधुधर्मफल एव इष्यते । न च भावतोऽप्रतिपन्नसाधुधर्मा संसाराटवीं लङ्घन्ते । इप्सितपुरं पुनर्जन्मजरामरणरोगशोकाद्युपद्रवरहितं शिवपुरम् । व्याघ्रसिंहौ च मोक्षविघ्नहेतू रागद्वेषौ । अभिभूताश्च ताभ्यां किंपाकों के फल हैं। न तो उन्हें देखना चाहिए, न खाना चाहिए। यहां पर घोर, बड़े शरीर वाले बाईस भयंकर पिशाच हैं जो क्षण-क्षण पर आक्रमण करते रहते हैं। उन्हें भी नहीं गिनना (मानना) । बाँटकर खाया जाने वाला भोजन-पान अत्यन्त नीरस और दुर्लभ होता है । (इसका विपक अत्यन्त सरस होता है जैसे बालक के लिए इन्द्रजव औषधि सरस होती है ।) वहाँ पर विषादी मत होना। यात्रा से विरत मत हो जाना। रात्रि में भी दो प्रहर नि म से चलना। इस प्रकार चलने पर हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही वन लाँघ जाओगे और लांघकर उस एकान्त दुर्गति से रहित निवृत्तिपुर में पहुँचोगे। वहाँ पर पुनः कोई क्लेश तथा उपद्रव नहीं होंगे। यह दृष्टान्त है, पुनः यह उपनय है । यहाँ पर व्यापारी तीनों लोकों के चिन्तामणि सुर और असुरों से पूजित अर्हन्तदेव हैं । घोषणा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी लक्षण वाली धर्म-कथाएं हैं। व्यापारियों का समूह यहाँ संसार रूप वन को लांघकर मोक्षपुरी को जाने वाले जीव हैं । जंगल नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति लक्षण वाला संसार है सीधा (सरल) पथ साधु धर्म है, थोड़ा कठिन मार्ग श्रावक धर्म है , उसके भी अन्त में साधु धर्मरूपी फल इष्ट है । भाव से साधुधर्म को न प्राप्त करने वाले जीव संसारवन को पार नहीं करते हैं। अभीष्टपुर जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग, शोक आदि उपद्रवों से रहित मोक्ष नगर है। व्याघ्र, सिंह के रूप में मोक्ष जाने में विघ्न उपस्थित १. महाक राला-क-ख । २. नास्ति ख-पुस्तके, ३. लंघेइत्ति-ख, विलंघेति-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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