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________________ पंचमो भवो' परिसडि पंडुपत्ता कुसुमपलविविज्जिया अमणोहरा य । तत्थ पढमाणं छाया वि विणासकारणं, कि पुण परिभोगोत्ति । न तेसु वीसमियव्वं, इयरेसु, महत्तमेत्तं वीस मियव्वं ति। मणोहररूवधारिणो महुरवयणा य एत्थ मग्गतडट्ठिया बहवे पुरिसा हक्कारेंति 'एह भो सत्थिया एह, एवं पि तं पुरं गम्मइ' त्ति । तेसि वयणं न सोयव्वं । सुसत्थिया उण मुहुत्तमेत्तमवि' काल खणवि न मोत्तव्वा। एपाइणो नियमा भयं । दुरंतो य थेवो दवग्गी अप्पमत्तेहि उल्ह'वेयव्वो, अणोल्हविज्जंता नियमेण डहइ । पुणो य दुग्गो उच्चो य पव्वओ, सो वि उवउत्तेहिं लंघियव्वो; अलंगणे य नियमा मरिज्जइ । तओविक महंती अइगविलगव्वरा' वंसकुडंगी, सा वि य दुययरं वोलेयव्वा। संठियाणं च तीए समोवे अणेए उवहवा । तओ अणंतरं च लहुओ खड्डोलओ। तस्स समीवे मणोरहो नाम बंभणो निच्चमेव परिवसइ। सो भणइ–भो भो सत्थिया, मणायं पूरेह५ एयं, तओ गमिस्सह ति। तस्स नो सोयव्वं वयणं, अवगणिऊण गंतव्वं । न खल सो परियव्वो । सो खु पूरिज्जमाणो महल्लयरो हवइ, थाओ य पडिभंसइ । फलाणि य णं एत्थ दिव्वाणि पंचप्पयाराणि नेत्ताइसुहयराणि किपागाणं, न पेक्खियव्वाणि, नवा भोत्तव्वाणि । बावीसं च णं एत्थ घोरा फलविवजिता अमनोहराश्च । तत्र प्रथमानां छायाऽपि विनाशकारणम्, कि पुनः परिभोग इति । न तेषु विश्रमितव्यम्, इतरेषु मुहूर्तमात्रं विश्रमितव्यमिति । मनोहररूपधारिणो मधुरवचनाश्चात्र मार्गतटस्थिता बहवः पुरुषा आकारयन्ति 'एत भोः सार्थिका एत, एवमपि तत्पुरं गम्यते' इति । तेषां वचनं न श्रोतव्यम् । सुसार्थिकाः पुनर्मुहूर्तमात्रमपि कालं क्षणमपि न मोक्तव्याः। एकाकिनो नियमाद् भयम् । दुरन्तश्च स्तोको दवाग्निरप्रमत्तैविध्यापितव्यः, अविध्याप्यमानो नियमेन दहति । पुनश्च दुर्ग उच्चश्च पर्वतः सोऽपि उपयुक्तैर्लवितव्यः, अलङ्घने च नियमाद् म्रियते । ततोऽपि च महती अतिगुपिल (गहन)-गह्वरा वंशकुडङ्गी, साऽपि च द्रुततरमतिक्रमितव्या। संस्थितानां च तस्याः समोपेऽनेक उपद्रवाः । ततोऽनन्तरं च लघुको गर्तालयः । तस्य समीपे मनोरथो नाम ब्राह्मणो नित्यमेव परिवसति । स भणति-भो भोः सार्थिकाः ! मनाक पूरयत एतम्, ततो गमिष्यथेति । तस्य नो श्रोतव्यं वचनम्, अवगणय्य गन्तव्यम् । न खल स पूरयितव्यः। स खल पूर्यमाणो महत्तरो भवति, पथश्च परिभ्रश्यति । फलानि चात्र दिव्यानि पञ्चप्रकाराणि नेत्रादिसुखकराणि किंपा. न्य (मार्ग के वथा) सडे हए, पीले पत्तों वाले, फल और फलों से रहित तथा अमनोहर हैं। उनमें से पहिले वृक्षों की छाया भी विनाशकारी है, परिभोग की तो बात ही क्या है। उनमें विश्राम नहीं करना चाहिए मनोहर रूप के धारी और मधुरवचन बोलने वाले (इस) मार्ग-स्थित बहुत से पुरुष बुलाते हैं-हे व्यापारियो, आओ आओ, इस प्रकार भी उस नगर को जाया जाता है । उनके वचन नहीं सुनना चाहिए। अच्छे व्यापारियों को मुहूर्त्तमात्र, क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहिए। अकेले व्यक्ति के लिए नियम से भय होता है। कठिनाई से अन्त की जाने वाली थोड़ी-सी दावाग्नि अप्रमादियों को बुझा देना चाहिए , न बुझाये जाने पर निश्चित रूप से जलाती है। पुनः दुर्ग और ऊँचा पर्वत मिलेगा, उसे भी उपयुक्त उपायों द्वारा नियमतः लाँघना चाहिए, न लांघने पर नियम से मरण होता है । अनन्तर बहुत बड़ी अत्यन्त गहन कोटर वाली बांस की जाली मिलेगी, उसे भी शीघ्रता से लांघ जाना चाहिए। उसके समीप खड़े होने पर अनेक उपद्रव होते हैं। इसके बाद छोटा-सा गर्तालय है ।उसके समीप मनोरथ नाम का ब्राह्मण नित्य ही रहता है। वह कहता है- 'हे व्यापारियो ! जरा इसको पूर दो, तब जाओ।' उस ब्राह्मण के वचन नहीं सुनना, न मानकर चले जाना । उसे पूरा मत करना। पूरे जाने पर वह और भी बड़ा हो जाता है और रास्ता नष्ट होता जाता है । यहाँ पर दिव्य, पांच प्रकार के, नेत्रादि को सुख देने वाले १. कंचि-क। २. अोल्ह-ग। ३.५ इगु विला-क। ४. नास्ति ख-पुस्तके । ५. पूरेहि-ख। ६. गमिस्ससि-ख । ७. अवम्निऊण-ख,८. पलिबिह-ख, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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