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________________ घउत्यो भवो] एसो उ मोहवसओ कोइ मं पाविऊण कुगईए। वच्चिहिइ अहो कठ्ठ कट्ठ बहुदुक्खपउराए ॥४३०॥ अहमेयस्स निमित्तं दोग्गइगमणे निमित्तविहरेण । नहु होइ कज्जसिद्धो भणियमिणं लोयनाहेण ॥४३१॥ सोएमि न नियदेहं एयं सोएमि मोहपरतंतं । जिणवयणवाहिरमई दुक्खसमद्दम्मि निवडतं ॥४३२॥ मोहवसयाण अहवा केत्तियमयं किलिट्टसत्ताणं । एसो मोहसहावो धिरत्थु संसारवासस्स ॥४३३।। इय सो सुहपरिणामो तीए विणिवाइओ उ पावाए। पन्नरससागराऊ उपवन्नो सुक्ककप्पम्मि ॥४३४॥ इओ य साधणसिरी ससज्झसा विय गया चंडियाययणं, पविसमाणी य नेहया चेडियाए। भणिया च तीए-सामिणि, कहिं गया आसि? तीए भणियं--न कहिं चि, परं अद्धरत्तसंझाए भयवईए पयाहिणं कयं ति। एष तु मोहवशतः कोऽपि मां प्राप्य कुगतौ। व्रजिष्यति अहो कष्टं कष्टं बहुदुःखप्रचुरायाम् ॥४३०॥ अहमेतस्य निमित्तं दुर्गतिगमने निमित्तविरहेण । न खलु भवति कार्यसिद्धिर्भणितमिदं लोकनाथेन ॥४३॥ शोचामि न निजदेहमेतं शोचामि मोहपरतन्त्रम् । जिनवचनबाह्यमति दुःखसमुद्रे निपतन्तम् ।।४३२॥ मोहवशगानामथवा कियन्मानं क्लिष्टसत्त्वानाम् । एष मोहस्वभावो धिगस्तु संसारवासम् ।।४३३॥ इति स शुभपरिणामस्तया विनिपातितस्तु पापया । पञ्चदशसागरायुरुरपन्नः शुक्रकल्पे।४३४॥ इतश्च सा धनश्री: ससाध्वसा इव गता चण्डिकायतनम्, प्रविशन्ती च वेदिता चेटिकया। भणिता च तया-स्वामिनि ! कुत्र गताऽऽसी: ? तया भणितम्- कुत्रचिद्, परमर्धरात्रसन्ध्यायां भगवत्याः प्रदक्षिणं कृतमिति । ___यह कोई जीव मोहवश मुझको (निमित्त) पाकर जिसमें बहुत से दु:खों की प्रचुरता है, ऐसी कुगति में जायेगा। ओह ! कष्ट है, कष्ट है । मैं इसके दुर्गतिगमन में निमित्त हूँ। क्योंकि संसार के नाथ ने कहा है कि निमित्त के बिना निश्चित रूप से कार्य की सिद्धि नहीं होती है । मैं अपने शरीर के विषय में शोक नहीं कर रहा हूँ। किन्तु मोह से परतन्त्र जिन वचनों से बाह्य जिसकी बुद्धि है, ऐसे दु:ख-समुद्र में गिरते हुए (इस जीव) के विषय में शोक कर रहा हूँ। मोह के वशीभूत प्राणियों का अथवा कितने ही दुःखी प्राणियों का यह मोहरूप स्वभाव है। ऐसे संसार के वास को धिक्कार हो। उस पापिनी के द्वारा मारे गये वे शुभ परिणामों से मरकर पन्द्रह सागर की मायु वाले शुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए ॥४३०-४३४॥ इधर वह धनश्री घबड़ाती हुई-सी चण्डी मन्दिर में गयी। प्रवेश करती हुई (उसे)दासी ने पहचान लिया। उसने कहा-"स्वामिनी, कहां गयी थीं ?" उसने कहा-"कहीं नहीं, आधी रात के समय भगवती की प्रदक्षिणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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