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________________ ३३८ [समराज्यकहा एत्थंतरम्मि उवलद्धो चेडियाए हयासणुज्जोओ। फिमेयं ति वियप्पिऊण पसुत्ता य एसा। पहाया रयणी । तओ काऊण देवयाए पूयं सम्माणिऊण कम्मयरे पत्थिया धणसिरी सगिहं । विट्ठो य पंथे वावन्नो रिसी धणसिरीए कम्मयरेहि चेडियाए य ।अहो केण एवं ववसियं ति जंपियं कम्मयरेहिं । न याणामि' त्ति भणियं धणसिरीए । समुप्पन्नो चेडियाए वियप्पो । पेसिया अहं भयवओ अन्नेसणनिमित्तं, निग्गया य एसा अद्धरत्तसमए', उवलद्धो य मए तीए चेव वेलाए उज्जोयो । ता न याणामो कहमेयं; मन्ने मि, जोइया अहं एयाए महापाव(वा)देसम्मि। एवं चितयंती पविट्ठा सह धणसिरीए गेहं ति। ____एत्थंतरम्मि आगओ सागडिओ। दिट्ठो य जेणं पि अट्टिमेत्तसेसो मुणिवरो। चितियं च णेणअहो मे अधन्नया। पडिवन्नो अहं कस्सइ किलिट्ठसत्तस्स भगवओ उवसग्गकरणेण सहायभावं । पाडिओ मए अप्पा दोग्गईए। ता निवेएमि एवं रवइस्स। अद्धजाममेत्ते य वासरे गओ नरवइसमीवं । निवेइ यमणेण । कुविओ राया। निउत्तो णेण बंडवासियो 'अरे लहु रिसिधायगं लहेहि' ति । निग्गओ अत्रान्तरे उपलब्धश्चेटिक या हुताशनोद्योतः । विमेतद्' इति विकल्प्य प्रसुप्ता चषा। प्रभाता रजनी । ततः कृत्वा देवताया: पूजां सम्मान्य कर्मकरी प्रस्थिता धनश्रीः स्वगहम । दष्टश्च पथि व्यापन्न ऋषिर्धनश्रिया कर्मकराभ्यां चेटिकथा च अहो केनैतद् व्यवसितमिति जल्पितं कर्मकराभ्याम 'न जानामि' इति भणितं धनश्रिया। समुत्पन्नश्चेटिकाया विकल्पः। प्रेषिताऽहं भगवतोऽन्वेषणनिमित्तम, निर्गता चैषाऽर्धरात्रसमये, उपलब्धश्च मया तस्यामेव वेलायाम योतः। ततो न जानीमः कथमेतत्, मन्ये, योजिताऽहमेतया महापापादेशे । एवं चिन्तयन्ती प्रविष्टा सह धनश्रिया गेहमिति । ___अत्रान्तरे आगत: शाकटिकः । दृष्टश्च तेनापि अस्थिमात्रशेषो मुनिवरः। चिन्तितं च तेनअहो मेऽधन्यता, प्रतिपन्नोऽहं कस्यचित् क्लिष्टसत्त्वस्य भगवत उपसर्गकरणेन सहायभावम् । पातितो मयाऽऽरमा दुर्गतो, ततो निवेदयाम्येतद् नरपतये । अर्धयाममात्रे च वासरे गतो नरपतिसमीपम् । निवेदितमनेन । कुपितो राजा। नियुक्तस्तेन दण्डपाशिकः, अरे लघ ऋषिघातक लभस्वेति। इसी बीच दासी ने अग्नि का प्रकाश प्राप्त किया (देखा) । 'यह क्या है' ऐसा सोचकर वह सो गयी। सबेरा हुआ । अनन्तर देवी की पूजा कर, दोनों मजदूरों का सम्मान कर धनश्री अपने घर गयी। रास्ते में धनश्री. दोनों मजदूर और दासी ने मरे हुए ऋषि को देखा। 'ओह ! यह किसने किया'-ऐसा दोनों मजदूरों ने कहा, 'मैं नहीं जानती हूं'-ऐसा धनश्री ने कहा । दासी के (मन में) विकल्प उत्पन्न हुआ --'मुझे भगवान को खोजने के लिए भेजा था और यह आधी रात के समय निकल गयी थी और उसी समय मुझे प्रकाश दिखाई दिया था । अतः नहीं जानती हैं, यह कैसे हुआ ? मैं मानती हूँ कि इसके द्वारा महान् पापकारी आज्ञा में लगायी गयी' -- ऐसा विचार करती हुई धनश्री के साथ घर में प्रविष्ट हुई। इसी बीच गाड़ीवान आया और उसने भी, हड्डीमात्र जिनकी शेष थीं, ऐसे मुनिवर को देखा । उसने सोचा'ओह ! मैं अधन्य हूँ, मैं किसी विरोधी प्राणी के द्वारा भगवान् के ऊपर उपसर्ग करने में सहायक हुआ हूँ। मैंने अपने आप को दुर्गति में गिरा दिया। अब मैं इस घटना को राजा के सामने निवेदन करता हूँ।' आधा प्रहर मात्र दिन होने पर राजा के पास गया । इसने निवेदन किया। राजा कुपित हुआ । उसने सेनापति को नियुक्त किया, १. भणियं च हिं--- महो-ख, २. जंपियं धणसिरीए न याणामि त्ति-ख, ३. अड्ढरत्त'-क. ४. उज्जोमो-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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