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________________ पढमो भवो ] अन्तेउरप्पहाणा देवी नामेग कुमुइणी तस्स । सह वड्ढियविसयसुहा इट्ठा य रइ व्व मयणस्स ॥ ३४॥ ताणय सुआ कुमारो गुणसेणो णाम गुणगणाइण्णो । बालत्तणओ वंतरसुरो व्व केलिप्पित्र णवरं ॥ ३५ ॥ तम्मिय नयरे अतीव सयलजणबहुमओ धम्मसत्यसंघायपाढओ, लोगवबहारनीइकुसलो, अपारंपरिग्गहो, जन्नदत्तो नाम पुरोहिओ त्ति । तस्स य सोमदेवागब्भसंभूओ, महल्ल तिकोणुत्तिमंगो, पिंगल व लोणो, ठाणमेतोवलक्खिय चिबिडनासो, बिलमेत्त कण्णसन्नो, विजियदन्तच्छयमहल्लदसणो, बंकसुदीहर सिरोहरो, विसमपरिहस्त बाहुजुअलो, अइमडहवच्छत्थलो, वंकविसमलंबोयरो, एक्कपासुन्नय महल्ल विथ डकडियडो, विसमपइट्ठिऊरुजुयलो परिथूलक ढिणहस्सजंघो विसमवित्थिण्णचलणो, हुयवहसिहाजाल पिंगकेसो, अग्गिसम्मो नाम पुत्तो ति । तं च को उहल्लेण कुमारगुणसेणो पहथपडुपडहमुइंगवंसकंसालय पहाणेण महया तूरेण अन्तःपुरप्रधाना देवी नाम्ना कुमुदिनी तस्य । सदावर्धित विषयसुखा इष्टा च रतिरिव मदनस्य ||३४|| तयोश्च सुतः कुमारो गुणसेनो नाम गुणगणाकीर्णः । बालत्वतः व्यन्तरसुर इव केलिप्रियः नवरम् ।। ३५॥ ११ तस्मिश्च नगरे अतीव सकलजनबहुमतः, धर्मशास्त्र संघातपाठकः, लोकव्यवहारनीतिकुशलः, अल्पारम्भपरिग्रहो यज्ञदत्तो नाम पुरोहित इति । तस्य च सोमदेवागर्भसंभूतः, महात्रिकोणोत्तमाङ्गः, आपिङ्गलवृत्तलोचनः स्थानमात्रोपलक्षितचिपिटनासः, बिल मात्रकर्णसंज्ञः, विजितदन्तच्छदमहादशन:, वक्रसुदीर्घशिरोधरः, विषमपरिह्रस्वबाहुयुगलः, अतिलघु वक्षःस्थलः, वक्रविषमलम्बोदरः, एक पार्श्वोन्नतमहाविकटकटीतटः विषमप्रतिष्ठितोरुयुगल, परिस्थूलकठिन ह्रस्वजङ्घः, विषमविस्तीर्णचरणः, हुतवह शिखाजालपिङ्गकेशः अग्निशर्मा नाम पुत्र इति । तं च कुलूहलेन कुमारगुणसेनः प्रहतपटुपटह- मृदङ्ग वंश- कांस्यक-लयप्रधानेन महता तूर्येण में प्रधान कुमुदिनी नाम की उस राजा की देवी थी। जिस प्रकार रति कामदेव को प्रिय है और उसके विषयसुख को बढ़ाने वाली है । उसी तरह कुमुदिनी भी उस राजा को प्रिय थी और सदैव उसके विषयसुख को बढ़ाती रहती थी ||३४|| उन दोनों के कुमार गुणसेन नाम का पुत्र था, जो कि गुणसमुदाय से व्याप्त था और बाल्यावस्था से ही बालसुलभ चेष्टाओं से व्यन्तरदेव के समान क्रीडाप्रिय था ॥ ३५ ॥ Jain Education International उसी नगरी में यज्ञदत्त नाम का पुरोहित था जो कि समस्त लोगों के द्वारा माननीय, धर्मशास्त्रों के समूह का अध्येता, लोकव्यवहार तथा नीति में कुशल एवं अल्प आरम्भ और परिग्रह को रखने वाला था । सोमदेवा के गर्भ से उत्पन्न उसका अग्निशर्मा नाम का पुत्र था । उसका ललाट विशाल और त्रिकोण ( तिखूंट) था तथा उसके नेत्र लालिमा लिये हुए भूरे रंग के तथा गोल थे । स्थान मात्र पर ही उसकी चिपटी नाक दिखाई देती थी, उसके कान बिल के समान जान पड़ते थे । ओठों को जीतने वाले (पार करने वाले) उसके बड़े-बड़े दाँत थे । गर्दन टेढ़ी और लम्बी थी। दोनों भुजाएँ विषन और छोटी थीं, छाती अत्यन्त छोटी थी, भयङ्कर कमर थी, नितम्ब विषम पेट टेढ़ा, विषम ( ऊँचा-नीचा) और लम्बा था । एक ओर ऊँची और थे; मोटी, कठिन और छोटी जंघाएँ थीं विषम और विस्तीर्ण ( लम्बे ) चरण के समान पीले-पीले उसके केश थे । थे तथा अग्नि की शिखा के समूह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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