SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ समराइच्चकहा नयरजणमज्झे सहत्थतालं हसंतो नच्चावेइ, रासहम्मि आरोवियं, पहटुबहु डिर्भावदपरिवारियं, छित्तरमयधरियपोण्डरीयं, मणहरुत्ता लवज्जंतडिंडिमं आरोवियमहाराय सद्दं, बहुसो रायमग्गे सुतुरियतुरियं हिण्डावेइ । एवं च पइदिणं कयन्तेणेव तेण कयत्थिज्जंतस्स तस्स वेरग्गभावणा जाया । चितियं चाणेण -- १२ बहुज धिक्कारया उवहसणिज्जा य सव्वलोयस्स । पुव्विं अकयसुपुण्णा सहति परपरिभवं पुरिसा ॥३६॥ जता न कओ धम्मो सुप्पुरिसनिसे विओ अहन्नेण । जम्मंतरम्मि धणियं सुहावहो मूढहियएणं ॥ ३७॥ इहिं पि फलविवागं उग्गं दट्ठूणमकयपुण्णाणं । परलोयबन्धुभूयं करेमि मुणिसेवियं धम्मं ॥ ३८ ॥ जम्मंतरे वि जेणं पावेमि ण एरिसं महाभीमं । सयलजणोहसणिज्जं विडम्बणं दुज्जणजणाओ ॥ ३६ ॥ नगरजनमध्ये सहस्ततालं हसन् नर्तयति, रासभे आरोपितम्, प्रहृष्टबहुडिम्भवृन्दपरिवारितम्, जीर्णशूर्पमयधृतपुण्डरीकम्, मनोहरोत्तालवाद्यमानडिण्डिमम् आरोपित महाराजशब्दम्, बहुशो राजमार्गे त्वरितत्वरितं हिण्डयति । एवं च प्रतिदिनं कृतान्तेनेव तेन कदर्थ्यमानस्य तस्य वैराग्यभावना जाता । चिन्तितं चानेन - बहुजनधिक्कारहता उपहसनीयाश्च सर्वलोकस्य । पूर्वमकृतसुपुण्याः सहन्ते परपरिभवं पुरुषाः ॥३६॥ यदि तावद् न कृतो धर्मः सुपुरुषनिषेवितोऽधन्येन । जन्मान्तरे गाढं सुखावहो मूढहृदयेन ||३७ || इदानीमपि फलविपाकमुग्रं दृष्ट्वाऽकृतपुण्यानाम् । परलोकबन्धुभूतं करोमि मुनिसेवितं धर्मम् ॥ ३८ ॥ " जन्मान्तरेऽपि येन प्राप्नोमि नैतादृशीं महाभीमाम् । सकलजनोपहसनोयां विडम्बनां दुर्जनजनात् ॥ ३६ ॥ कुमार गुणसेन कुतूहलवश उस अग्निशर्मा को जोर से ढोल बजाकर, मृदंग, बाँसुरी तथा मजीरे की saft की जिसमें प्रधानता होती थी ऐसे बड़े बड़े बाजों के साथ नगर के लोगों के बीच तालियाँ दे देकर हँसता हुआ नचाता था, गधे पर बैठाता था, हर्षित होकर बहुत से बच्चों से घिरवाता था, पुराने सूप का छत्रकमल (छाता) लगवाये रहता था, मनोहर और उच्च स्वर से बजायी जाने वाली डोंडी पिटवाकर उसे महाराज शब्द से पुकारता हुआ अनेक बार सड़क पर जल्दी-जल्दी घुमाता था । इस प्रकार प्रतिदिन उसके द्वारा मानो साक्षात् यम के द्वारा ही सताये हुए के समान उस अग्निशर्मा के अन्दर वैराग्यभावना उत्पन्न हुई उसने सोचा- Jain Education International बहुत लोगों के धिक्कार से मारे गये, समस्त लोगों द्वारा उपहसनीय ( उपहास करने योग्य) पुरुष पूर्व जन्म में पुण्य कार्य न करने के कारण दूसरों के द्वारा किए हुए तिरस्कार को सहन करते हैं || ३६ || यदि मुझ मूढ़हृदय अभागे ने दूसरे (पूर्व) जन्म में अत्यधिक सुख को देने वाले सत्पुरुषों से सेवित धर्म ( का आचरण) नहीं किया तो अब पुण्य न करने वाले लोगों के उग्र फलरूप परिपाक को देखकर परलोक के बन्धुभूत, मुनियों के द्वारा सेवित धर्म को करता हूँ जिससे जन्मातर में तो दुष्ट लोगों द्वारा इस प्रकार की महाभयङ्कर समस्त लोगों द्वारा उपहास करने योग्य, विडम्बना को प्राप्त न होऊँ ।। ३७-३६ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy