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पढमो भवो ]
एवं च चितिय पवन्नवेरग्गमग्गो निग्गओ नयराओ, पत्तो य मासमेत्तेण कालेण तविसयसंधिसंठियं बउलचंपगासोगपुन्नागनागाउलं, . पसंतमयमयाहिवपमुहविरुद्धसावयगणं सुरहिहविगंधगभिणुद्दामधूमपडलं, विमलसलिलगिरिणईपसाहियवियडपेरंतं, तावसजणजणियहिययपरिओसं सुपरिओसं नाम तवोवणं ति ।
संपाविऊण य तओ दीहद्धाणपरिखेइयसरीरो। वीसमिऊण मुहत्तं तवोवणं अह पविट्ठो सो ॥४०॥ दिवो य तेण वक्कलवियडजडाऽजिणतिदंडधारीय। भूइरयकतिपुंडो आसन्नकमंडलू सोमो ॥४१॥ भिसियाए सुहनिसण्णो कयलीहरयंतरम्मि झाणगओ। परिवत्तेन्तो दाहिणकरेण रुद्दक्खमालं ति ॥४२॥ मंतक्खरजवणेण य ईसि विलयंतकंठउद्वउडो।
नासाए निमियदिट्ठी विणिवारियसेसवावारो ॥४३॥ एवं च चिन्तयित्वा प्रपन्नवैराग्यमार्गो निर्गतो नगरात्, प्राप्तश्च मासमात्रेण कालेन उद्विषयसन्धिसंस्थितम, बकुल-चम्पकाऽशोकपुन्नागनागाकुलम्, प्रशान्तमगमगाधिपप्रमखश्वापदगणम, सरभिहविगन्धभितोद्दामधूमपटलम्, विमलसलिलगिरिनदीप्रसाधितविकटपर्यन्तम, तापसजनजनितहृदयपरितोषं सुपरितोषं नाम तपोवन मिति ।
संप्राप्य च ततो दीर्घाध्वानपरिखेदितशरीरः । विश्रम्य मुहूर्तं तपोवनमथ प्रविष्टः सः ।।४।। दष्टश्च तेन वल्कल-विकटजटाऽजिनत्रिदण्डधारी च । भूतिरजस्कृतत्रिपुण्ड्रः आसन्नकमण्डलुः सोमः ।।४१।। वषिकायां (कुशासने) सुखनिषण्णः कदलीगृहान्तरे ध्यानगतः । परिवर्तयन् दक्षिणकरेण रुद्राक्षमालामिति ॥४२॥ मन्त्राक्षरजपनेन च ईषद् विगलत्कण्ठोष्ठपुटः।
नासायां स्थापितदृष्टि: विनिवारितशेषव्यापारः॥४३॥ ऐसा सोचकर वैराग्य मार्ग को प्राप्त हुआ वह नगर से निकल पड़ा और एक मास में ही उस देश की सीमा पर स्थित सुपरितोष नामक तपोवन में पहुँचा । वह तपोवन मौलश्री, चम्पा, अशोक, पुन्नाग और नागरमोथा से व्याप्न था; शान्त हरिण, सिंह आदि प्रमुख जंगली जानवरों से युक्त था, सुगन्धित होम की गन्ध जिसमें मित थो ऐसे उत्कट धुएँ के समूह से युक्त था, स्वच्छ जलवाली पर्वतीय नदी से जिसकी विस्तीर्ण सीमा की सजावट हो रही थी तथा जो तापसी जनों के हृदय में सन्तोष उत्पन्न कर रहा था।
___ वहाँ पहुँचकर लम्बा रास्ता तय करने के कारण थके हुए शरीर वाले उसने मुहूर्त भर विश्राम किया। अनन्तर वह तपोवन में प्रविष्ट हुआ ॥४०॥ उसने तापस-परिवार में प्रधान आर्जवकौण्डिन्य नामक तपस्वी को देखा। वह पेड़ की छाल, बड़ी-बड़ी जटाएँ, मृगचर्म और त्रिपुण्ड्र धारण किए हुए था। राख से उसने त्रिपुण्ड्र बनाया हुआ था। उसके समीप में ही कमणलु और सोम रखा था। वह वृषिका नामक कुशासन विशेष पर सुखपूर्वक बैठा हुआ कदलीगृह के अन्दर ध्यान लगा रहा था। दायें हाथ से वह रुद्राक्षमाला को फेरता जा रहा था । मन्त्र के अक्षरों को जपने से उसके कण्ठ और ओठ कुछ-कुछ हिल' रहे थे। नासिका पर उसकी दृष्टि थी
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