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पढमो भवो
अत्थि इहेव जम्बुद्दीवे' दीवे, अवरविदेहे वासे, उत्तुंगधवलपागारमंडियं, नलिणीवणसछन्न परिहासणाहं, सुविभततियचउवकचच्चरं भवणेहिं जियसुरिंदभवणसोहं खिइपइट्ठियं नाम नयरं ।
जत्थ विलयाउ कमलाई' कोइलं कुवलयाई कलहंसे । artहि जंपिएण य नयणेहि गईहि य जिणंति ॥ ३१ ॥ जत्थ च नराण वसणं विज्जासु, जसम्मि निम्मले लोहो । पावेसु सया भीरुत्तणं च धम्मम्मि धूणबुद्धी ॥३२॥ तत्थ य राया सपुष्णमंडलो मयकलंकपरिहीणो । जनमणनयणाणंदो नामेणं पुण्णचंदो त्ति ॥ ३३ ॥
अस्ति इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे अपरविदेहे वर्षे उत्तुङ्गधवलप्राकारमण्डितम्, नलिनीवनसंछन्नपरिखासनाथम्, सुविभक्त त्रिक-चतुष्क चत्वरम्, भवनजितसुरेन्द्रभवनशोभं क्षितिप्रतिष्ठितं नाम
नगरम् ।
यत्र वनिताः कमलानि कोकिलां कुवलयानि कलहंसान् । वदनैः जल्पितेन च नयनैः गतिभिश्च जयन्ति ॥ ३१॥
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यत्र च नराणां व्यसनं विद्यासु, यशसि निर्मले लोभः । पापेषु सदा भीरुत्वं च धर्मे धनबुद्धिः ||३२||
तत्र च राजा सम्पूर्णमण्डलो मृग (मद ) - कलङ्क परिहीणः । जनमनो-नयनानन्दो नाम्ना पूर्णचन्द्र इति ॥३३॥
इसी जम्बूद्वीप के अपर विदेह क्षेत्र में ऊँचे सफेद प्राकार से मण्डित कमलिनियों के वन से आच्छादित खाई से युक्त, तिराहों, चौराहों से भली प्रकार विभक्त, भवनों से इन्द्र के भवनों की शोभा को जीतने वाला क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था ।
जहाँ ( विलासिनी) स्त्रियां अपने मुखों ( की शोभा) से कमलों को, वाणी से कोयल को, नेत्रों से नील कमलों को और अपनी चाल से कलहंसों को पराजित कर देती थीं ॥ ३१ ॥ जहाँ पर विद्याओं में ही मानवों का व्यसन ( प्रवृत्ति), पवित्र यश में ही लोभ, पापों में सदैव भीरुता और धर्म में ही धन की बुद्धि पायी जाती थी ( द्यूत आदि सात व्यसनों में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती थी, द्रव्य आदि का लोभ उन्हें नहीं था, शत्रु आदि का भय भी उन्हें नहीं था तथा धन-धान्यादि को यथार्थ धन नहीं मानते थे ) ||३२|| वहाँ का राजा नाम से और गुणों से भी पूर्णचन्द्र था। वह मनुष्यों के मन और नेत्रों को आनन्द प्रदान करता था । चन्द्रमा और उस राजा में यही अन्तर था कि चन्द्रमा तो घटता-बढ़ता रहता है, किन्तु राजा अपने पूर्ण मण्डल से सदैव युक्त रहता था, चन्द्रमा तो मृगलाञ्छन से युक्त रहता है किन्तु वह राजा मद आदि लाञ्छनों से रहित था ||३३|| अन्तःपुर
१. जंबुद्दीवे, २. कमलाइ ।
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