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________________ [समराइचकहा एत्थ संदेहो, अन्नहा कि गवसणनिमित्तं' ति वितिऊण पुच्छिया एसा--सुंदरि, अलं भयसंकाए कि पुणुद्दिसिय तुमं भयवओ गवेसणनिमित्तं पेसिया। चेडियाए भणियं अज्ज, सो खु भयवं कल्ले तइयपोरिसीए भिक्खानिमित्तं इहं पविडो ति, अगेण्हिऊण भिक्खं लहु चेव निग्गओ । तओ निग्गच्छमाणं पेच्छिऊण भणिया अहं सामिणोए, जहा 'मंजरिए, गच्छ, कहिं पुण एस समणओ ठिओ त्ति नाणिऊण लहं संवाएहि' । तमओ संवाइयं मए, न उण कज्ज वियाणामि। दंडवासिएण भणियं - तओ तत्थ गंतूण किं कयं तस्य तीए? चेडियाए भणियं -अज्ज, न किंचि, न वंदिओ वि एसो सामिगोए, अवि चंडियाए कया पूय ति। दंडवासिएण चितियं अओ चेव करदेवयाविहाणनिमित्तं पयारिऊण परियणं एयाए वावाइयो हविरसइ । ता पेच्छामि ताव सत्थवाहपरिणि, तओ मुहवियारओ चेव लक्खिस्सामि ति। गओ तीए पास, संखुद्धा धणसिरी, लक्खिओ से भावो दंडवासिएप, भणिया यण-पेसियो अहं महाराएण, [वावाइयो' रिसी,] रिसिवावायगअण्णसणनिमित्तं, पवत्तो य तस्स घाययवियाणणत्थं ति । पसुत्ता य तुमं चंडियाययणे, वियाणिओ य एस वुत्तंतो मए । ता एहि, दण्डपाशिकेन 'नात्र सन्देहः, अन्यथा कि गवेषणनिमित्तम्' इति चिन्तयित्वा पृष्टैषा-सुन्दरि ! बसंभयशङ्कया, किं पुनरुद्दिश्य त्वं भगवतो गवेषणनिमित्तं प्रेषिता ? चेटिकया भणितम् --आर्य ! स खलु भगवान् कल्ये तृतीयपौरुष्यां भिक्षानिमित्तमिह प्रविष्ट इति, अगृहीत्वा भिक्षां लघ्वव निर्गतः । ततो निर्गच्छन्तं प्रेक्ष्य भणिताऽहं स्वामिन्या, यथा 'मञ्जरिके ! गच्छ, कुत्र पुनरेष श्रमणः स्थित ततो ज्ञात्वा लघुसंवादय' । ततः संवादितं मया, न पुनः कार्य विजानामि । दण्डपाशिकेन भणितम्ततस्तत्र गत्वा किं कृतं तस्य तया? चेटिकया भणितम् --आर्य! न किञ्चित्, न वन्दितोऽप्येष स्वामिन्या मपि चण्डिकायाः कृता पूजेति । दण्डपाशिकेन चिन्तितम्-अत एव करदेवताविधाननिमित्तं प्रतार्य परिजनमेतया व्यापादितो भविष्यति । ततः प्रेक्षे तावत् सार्थवाहगृहिणीम्, ततो मुखविकारत एव लक्षयिष्यामीति । गतस्तस्याः पार्श्वम्, संक्षुब्धा धनश्रोः, लक्षितस्तस्या भावः दण्डपाशिकेन, भणिता पतेन-प्रेषितोऽहं महाराजेन, [व्यापादित ऋषिः,] ऋषिव्यापादकान्वेषणनिमित्तम्, प्रवृत्तश्च तस्य पातकविज्ञानार्थमिति । प्रसुप्ता च त्वं चण्डिकायतने, विज्ञातश्चैष वृत्तान्तो मया। तत एहि नरपतिसोचकर इससे पूछा-'सुन्दरी! भय की शंका मत करो, किसलिए तुम भगवान को खोजने के लिए भेजी गयी थी ?' हासीकहा-'आर्य! वह कल तीसरे पहर भोजन के लिए यहाँ प्रविष्ट हुए। भोजन को ग्रहण किये बिना शीघ्र ही निकल गये। तब निकलते हुए देखकर स्वामिनी ने मुझसे कहा कि हे मंजरिका ! जाओ, यह श्रमण कह ठहरा हुआ है, यह जानकर शीघ्र कहो । तब मैंने बतलाया। कार्य के विषय में मैं नहीं जानती हूँ।' दण्डपाशिक (सेनापति) ने कहा--- 'अनन्तर वहाँ जाकर उस मुनि का उसने क्या किया?' दासी ने कहा---'आर्य ! कुछ नहीं, स्वामिनी ने इसकी वन्दना भी नहीं की तथापि चण्डी की पूजा की। दण्डपाशिक ने सोचा-इसीलिए क्रूर देवता की पूजा के निमित्त से सेवकों को धोखा देकर इसी ने मार दिया होगा। अत: वणि पत्नी को देखता हूँ। मुख के विकार से ही मैं जान जाऊंगा।' (दण्डपाशिक) उसके पास गया, धनश्री क्षुब्ध हुई, उसके भावों को दण्डपाशिक ने जान लिया। उसने कहा-'मुझे महाराज ने ऋषि को मारने का पता लगाने भेजा है, उसके मारने वाले को जानने के लिए आया हूँ। तुम चण्डी के मन्दिर में मोयी थीं, यह वृत्तान्त मुझे मालूम हो गया है । अत: आओ, राजा के पास दोनों चलें।' यह सुनकर घबड़ाहट तथा भय से अंगों को कपाती हुई धनधी पृथ्वी पर गिर पड़ी। दमपाशिक ने सोचा-'यह इसी ने किया है, नहीं तो क्यों इस प्रकार डरती । इसकी (लोगों ने) निन्दा की । लोगों १.अयं कोष्ठान्तर्गतः पाठः क-पुस्तके नास्ति, 2. घाययन्नेसणत्यं-ख । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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