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[समराइच्चकहा
देवा य हरिसियमणा करेंति उक्किट्ठसीहणायं च । मुणिऊण तस्स जम्मं सुदुल्लहं सयलभुवणम्मि' ॥९८॥ इयरो वि य कामगुणे सप्फासरसरूवगंधे य। दिव्वे समणुहवंतो हिट्ठो उठेइ सयराहं ॥६६॥ सुरयणनयणाणंदो दिव्वं देवंसुयं अहिखिवंतो। भासुरवरबोंदिधरो सपुण्णो सारदससि व्व ॥१००॥ तियसविलयाउ तत्थ य तहिय लडहाउ महुरवयणेहिं । जयजयजय त्ति नंदा थुगंति हिट्ठाउ एएहि ॥१०१॥ तियसा वि परमहिट्ठा गण्डयलावडिय कुंडलुज्जोया। सुरतरुकुसमाहरणा नमंति जयसद्दहलबोलं ॥१०२॥ अह तं दिव्वपरियणं दट्ठण लोयणेण संभंतो। दिन्नं हुयं वा किं मे इमं फलं जस्स दिव्वं ति ॥१०३॥
देवाश्च हृष्टमनसः कुर्वन्ति उत्कृष्टसिंहनादं च । ज्ञात्वा तस्य जन्म सुदुर्लभं सकलभुवने ॥६॥ इतरोऽपि च कामगुणान् शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् च । दिव्यान् समनुभवन् हृष्ट उत्तिष्ठति शीघ्रम् ।।६६॥ सुरजननयनानन्द: दिव्यं देवांशुक अधिक्षिपन् । भासुरवरमुखधरः सम्पूर्णः शारदशशीव ॥१००॥ त्रिदशवनितास्तत्र च तैश्च सुन्दरा मधुरवचनैः । जय जय जय इति नन्दा स्तुवन्ति हृष्टा एतैः ॥१०१॥ त्रिदशा अपि परमहृष्टा गण्डतलापतितकुण्डलोद्योताः।। सुरतरुकुमुमाभरणा नमन्ति जयशब्दहल बोलम् ॥१०२।। अथ तं दिव्यपरिजनं दृष्ट वा लोचनेन संभ्रान्तः ।
दत्तं हुतं वा कि मया इदं फलं यस्य दिव्यमिति ॥१०३॥ समस्त संसार में उसके जन्म को दुर्लभ जानकर देव प्रसन्न हो उत्कृष्ट सिंहनाद करते हैं । वह (देव) भी शब्द, स्पर्श, रस रूप तथा गन्धरूप दिव्य कामगुणों का अनुभव कर प्रसन्न होकर शीघ्र उठ जाता है। देवताओं के नेत्रों को आनन्द देने वाले दिव्य देववस्त्रों को पहनकर शरत्कालीन पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान देदीप्यमान श्रेष्ठमुख का धारी हो जाता है। ये देवांगनाएँ प्रसन्न होकर अपने सुन्दर मधर वचनों से 'जय-जयजय' का नाद करती हुई स्तवन करती हैं । गालों के नीचे तक जिनके कुण्डलों की आभा फैल रही है तथा जो कल्पवक्षों के पुष्पों के आभरण से युक्त हैं ऐसे देव भी परमहर्षित होकर जयशब्द के उच्चारणपूर्वक (नवागन्तुक देव को) नमस्कार करते हैं । वह नेत्रों से दिव्य परिजनों को देखकर चकित होता हुआ सोचता है--मैंने क्या दान किया अथवा क्या होम आदि किया, जिसका यह दिव्यफल है ! ॥६८-१०३॥
१. जम्मम्मि ।
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