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________________ फुकारपवणपिसुणियमवयच्छियवयणमयगरमहो य। दिग्गयकरोरुकायं कसिणं रत्तच्छिवीभच्छं ॥१८४॥ जावेसो सरथंभो ताव महं जीवियं ति चितंतो। अवयच्छइ उद्धमुहो पेच्छइ य सुतिक्खदाढिल्ले ॥१८॥ धवलकसिणे य तुरियं दुवे तहिं मूसए महाकाए । निच्चं वावडवयणे छिदंते तस्स मूलाई ॥१८६॥ ताव वणवारणेण य विज्झाई' नरं अपावमाणेणं। कुविएण विइण्णाइं धणियं नग्गोहरुक्खम्मि ॥१८७॥ संचालियम्मि तम्मि य अवडोवरि वियडसाहसंभूयं । खुडिऊण तम्मि पडियं महुजालं जिण्णकूवम्मि ॥१८॥ तो कुवियदुटुमहुयरिनियरडसिज्जंतसव्वगत्तस्स । सीसम्मि निवडिया कह वि नवरं जोएण महुविंदू ॥१८॥ फुत्कारपवनपिशुनितं प्रसारितवदनमजगरमधश्च । दिग्गजकरोरुकायं कृष्णं रक्ताक्षिवीभत्सम् ॥१८४॥ यावदेष शरस्तम्भस्तावन्मम जीवितमिति चिन्तयन् । अवकासते ऊर्ध्वमुखः पश्यति च सुतीक्ष्णदाढावतः ॥१८॥ धवलकृष्णो च त्वरितं द्वौ तत्र मूषको महाकायौ । नित्यं व्यापृतवदनो छिन्तस्तस्य मूलानि ॥१६॥ तावद् वनवारणेन च अभिघातनानि नरमप्राप्नुवता । कुपितेन वितीर्णानि भृशं न्यग्रोधवृक्षे ॥१८७॥ संचालिते तस्मिश्च अवटोपरिविकटशाखासम्भूतम् । त्रुटित्वा तस्मिन् पतितं मधुजालं जीर्णकूपे ॥१८॥ ततः कुपितदुष्टमधुकरीनिकरदश्यमानसर्वगात्रस्य । शीर्षे निपतिताः कथमपि नवरं योगेन मधुबिन्दवः ॥१६॥ नीचे एक काला और अपनी लाल-लाल आँखों से भयानक लगने वाला जो अपने फुफकार से मानों अपना होना सूचित कर रहा था, अजगर था। उसने अपना मुंह फाड़ रखा था। दिग्गज की सूड की तरह उसका शरीर मोटा था। जब तक यह सरपत का गुच्छ (मरकण्डों का समूह) है तभी तक मेरा जीवन है, ऐसा सोचकर जब वह ऊपर मुह करता है तो देखता है कि पैनी दाढों वाले सफेद और काले, बड़े बड़े शरीर वाले दो चूहे जल्दी जल्दी उस गुच्छ की जड़ को काटने में निरन्तर लगे हुए हैं । जंगली हाथी को जब मनुष्य नहीं मिला तो वह कुपित होकर बड़ी तेजी से वटवृक्ष पर अभिघात करने लगा। वृक्ष के हिलाने पर कुएँ के ऊपर की विकट शाखा में लगा हुआ मधु का छत्ता टूटकर उस पुराने कुएँ में गिर पड़ा। इससे कुपित होकर मधुमक्खियों के समूह ने सारे शरीर को डस लिया। किसी योग से उसके सिर पर कुछ मधुविन्दु पड़े। ।।१८४-१८९॥ १, वेज्झाइ-ख, २, महुबिंदु-च । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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