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ओयलि'ऊण य वयणं कहवि पविट्ठा उ उत्तिमंगाओ। खणमासाइउमिच्छइ पुणो वि अन्ने निवडमाणे ॥१०॥ अगणेउमयगरोरगकरिमूसयविलयमहुयरिभयाइं। महुविदुरसासायणगेहिवसा हरिसिओ जाओ॥१६१॥ भवियजणमोहविउडणपच्चलमच्चत्थमियमुदाहरणं । परिगप्पियमेयस्स य उवसंहारं निसामेह ॥१९२॥ जो पूरिसो सो जीवो चउगइभमणं च रण्णपरियडणं । वणवारणो य मच्चू निसारिं जाण तह य जरं ॥१९॥ वडरुक्खो उण मोक्खो मरणगइंदभयवज्जिओ नवरं । आरुहिउं विसयाउरनरेहि न य सक्कणिज्जो त्ति ॥१९४॥ मणुयत्तं पुण कूवो भुयंगमा तह य होंति उ कसाया। खइओ जेहि मणुस्सो कज्जाकज्जाई' न मुणेइ ॥१९॥
अवतीर्य च वदनं कथमपि प्रविष्टास्तूत्तमाङ्गात् । क्षणमास्वादितुमिच्छति पुनरपि अन्यान् निपततः ॥१०॥ अगणयित्वाऽजगरोरगकरिमषकविलयमधुकरीभयानि । मधुबिन्दुरसास्वादनगृद्धिवशाद् हर्षितो जातः ॥१९॥ भविकजनमोहविकुटनप्रत्यलमत्यर्थमिदमुदाहरणम् । परिकल्पितमेतस्य च उपसंहारं निशामयत ॥१९२॥ यः पुरुषः स जीवः चतुर्गतिभ्रमणं चारण्यपर्यटनम् । वनवारणश्च मृत्युनिशाचरी जानीहि तथा च जराम् ॥१६३।। वटवृक्षः पुनर्मोक्षो मरणगजेन्द्रभयवजितो नवरम् । आरोढ विषयातुरनरैः न च शकनोय इति ॥१६४।। मनुजत्वं पुनः कूपो भुजङ्गमास्तथा च भवन्ति तु कषायाः।
खादितो यैर्मनुष्यः कार्याकार्यं न जानाति ॥१६॥ कषाएं हैं जिनके द्वारा खाया जाकर मनुष्य कार्य तथा अकार्य को नहीं जानता है। ॥१८०-१९२
ये बिन्दु सिर से उतरकर किसी प्रकार मुंह में पड़े। वह क्षण भर के लिए उनका तथा बाद में गिरने वाली बूदों का स्वाद लेना चाहने लगा। अजगर, साँप, हाथी और चूहों द्वारा किये जाते ध्वंस और मधुमक्खियों के समूह के भय को न मानता हुआ वह मधुबिन्दु के आस्वादन को लालसा से हर्षित हो गया । भव्यजनों के मोह को नष्ट करने के लिए यह कल्पित उदाहरण अत्यधिक अर्थ से भरा हुआ है । अब इसके उपसंहार को सुन लीजिए । जो वह पुरुष है वह जीव है । जंगल में भ्रमण करना, चारों गतियों में भ्रमण करना है। जंगली हाथी मत्य है और वृद्धावस्था को निशाचरी जानना चाहिए । वटवृक्ष मोक्ष है जो कि मरणरूपी हाथी के भय से रहित है, उस पर विषयों के प्रति आतुर मनुष्य चढ़ने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। कुआँ मनुष्यभव है और सर्प कषायें हैं जिनके द्वारा खाया जाकर कार्य-अकार्य नहीं जान पाता है ॥ १६०.१९५॥
१, ओयरि-ख, २. कज्जाकजजाइ-च ।
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