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________________ [समरााचकहा एत्यंत रम्मि समागओ मित्तभूई नाम कन्नतेउरमहल्लओ। पणमिओ अहं तेण, मए वि य अहिवाइओ। भणियं च तेण-विलासवइ, महाराओ आणवेइ। विसुमरिया ते वीणापओगा। कुविओ अहं कल्लं । ता लहु सुमरेहि 'अज्ज पुण तए वोणा वाइयव्व' ति। तओ 'जं महाराओ आणवेइ' त्ति भणिऊण निग्गया लहुँ। अह कंचुइयसमेया सणेहमारत्तकसणधवलेहि । नयणेहि अपेच्छंतं पेच्छंतो वलियतारेहि ॥४४४॥ मंथरगईए वियलंतहत्थसंरुद्धमुहलमणिरसणा। मयणसरघायभोय व्व वेवमाणी गया भवणं ॥४४५॥ तओ वसुभइणा भणियं-वयस्स', एहि गच्छामो, विणा विलासवईय किमिह चिट्रिएणं ति । निग्गया अम्हे, दिवा य उज्जाणदुवारदेसभाए अणंगवइनामाए रायपत्तोए । अकज्जायरणकुलहरत्तण मयणस्स समुष्पन्नो तीए वि ममोवरि अहिलासो। गया' अम्हे सगिहं । वासरंतम्मि य घेत्तूण विज्जाहरबंधगुत्थाई सिंदुवारकुसुमाई विलेवणसणाहं च तंबोलमागया अणंगसुंदरी। भणियं च अत्रान्तरे समागतो मित्रभूति म कन्याऽन्तःपुरमहत्कः। प्रणतोऽहं तेन, मयाऽपि चाभिवादितः। भणितं च तेन–विलासवति! महाराज आज्ञापयति -विस्मृितास्ते वीणाप्रयोगाः, कुपितोऽहं कल्ये, ततो लघु स्मर 'अद्य त्वया वीणा वादयितव्या' इति । ततो 'यद् महाराज आज्ञापयति' इति भणित्वा निर्गता लघु। अथ कञ्चुकिसमेता सस्नेहमारक्तकृष्णधवलाभ्याम् । नयनाभ्यामप्रेक्षमाणं प्रेक्षमाणा वलितताराभ्याम् ॥४४४।। मन्थरगत्या विचलदहस्तसंरुद्धमुखरमणिरशना । मदनशरघातभीतेव वेपमाना गता भवनम् ॥४४५।। ततो वसूभतिना भणितम्-वयस्य ! एहि, गच्छावः विना विलासवत्या किमिह स्थितेनेति । निर्गतावावाम । दष्टौ च उद्यानदेशभागे अनङ्गवतीनामया राजपत्न्या। अकार्यां चरण कुलगहत्वे न मदनस्य समुत्पन्नास्तस्या अपि ममोपर्यभिलाषः । गतावावां स्वगृहम । वासरान्ते च गहीत्वा विद्याधरबन्धग्रथितानि सिन्दुवारकुसुमानि विलेपनसनाथं च ताम्बूलमागताऽनङ्गसुन्दरी । भणितं च तया इसी बीच मित्रभूति नाम का, कन्याओं के अन्तःपुर का प्रधान पुरुष आया। उसने मुझे प्रणाम किया और और उसे अभिवादन किया। उसने कहा-'विलासवति ! महाराज ने मुझे आज्ञा दी है कि तुम वीणा का बजाना भूल गयी हो, मैं कल कुपित हुआ था । अतः शीघ्र ही स्मरण करो, आज तुम्हें वीणा बजानी है।' तब 'महाराज की जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर शीघ्र ही निकल गयी। तदनन्तर लाल, काली और सफेद तथा चंचल पुतलियों वाली आँखों से स्नेहक न देखने वाले को देखती हई मन्द गति से चंचल हाथों द्वारा, शब्द करती हई मणिमेखला को रोकती हई सालो भयभीत होकर काँपती हुई-सी वह राजपुत्री कंचकी के साथ भवन में चली गयी। तब वसुभूति ने कहा- 'मित्र ! आओ चलें। विलासवती के यहाँ ठहरने से लाभ ही क्या है ? हम दोनों निकल गये । हम दोनों को उद्यान के एक भाग में अनंगवती नामक राजपत्नी ने देखा। कामदेव के अनुचित आचरण का कुलगृह होने के कारण उसे मेरे प्रति अभिलाषा हो गयी अर्थात् वह मुझे चाहने लगी। हम दोनों अपने निवासगृह चले गये । दिवस के अन्त में विद्याधरों के धागे में गूंथे गये सिन्दुवार निर्गुण्डी के फूल (माला) १. वयंस-ख, २. तमो त वीण वायं तीम पेख्छि ऊग -1, नाम विलास पइस तीया रायवेडिया चतगे पुनिवडिऊण -ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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