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पंचमो भवो]
तीए- कुमार, विन्नत्तं सामिणीए 'एयाइं सिंदुवारकुसुमाइं अवस्सं अज्ज उत्तेणं परिहियब्वाई' ति । तओ 'संवाइयं चेव इमिणा उवन्नासेण मे समीहियं' ति चितिऊण, 'जं देवी आणवेइ' त्ति भणिऊण गहियं कुसुमदाम, विरइयं उत्तिमंगे; विलित्तो वि पिययमाबहुमाणेण ' पुणो विलित्तो अप्पा; मोत्तणमावीलं समाणियं तंबोलं । एत्थंतरिम्म भणियं वसुभइणा। अणंगसुंदरि, दितए पियवयंसस्स विणीयत्तणं । तीए भणियं-न एवंविहेसु महापुरिसेस विणओ अच्छेरयं ति । तओ कंचि वेलं गमेऊण पयट्टा अणंगसुंदरी। दिन्नो य से मए भुवणसारो कंठओ। तओ पहढवयणकमला 'संपन्ना सामिणीए मणोरह' त्ति चितयंती भणिया य एसा-सुंरि, सयं ते गेहमेयं, ता इहागमणेण खेओ न कायवो त्ति । तओ 'जं कुमारो आणवेइ' ति भणि ऊण गया अणंगसुंदरी। पवड्ढमाणाणुरायाण अइक्कंता कइवि दियहा।
अग्नया य रायकुलाओ निग्गच्छमाणो भणिओ अहं चेडियाए । कुमार, महारायपत्ती अणंगवई कूमार ! विज्ञप्तं स्वामिन्या 'एतानि स्वहस्तग्रथितानि सिन्दुवारकुसुमानि अवश्यमार्यपुत्रण परिधातव्यानि' इति । ततः 'संवादितं चैवानेनोपन्यासेन मे समीहितम्' इति चिन्तयित्वा 'यद् देवी आज्ञापयति' इति भणित्वा गृहीतं कुसुमदाम, विरचितमुतमाङ्ग, विलिप्तोऽपि (कृतविलेपनोऽपि) प्रियतमाबहुमानेन पुनर्विलिप्त आत्मा, मुक्त्वाऽऽवोलं (समाणिअं) भुक्तं ताम्बूलम् । अत्रान्तरे भणितं वसुभूतिना-अनङ्गसुन्दरि! दृष्टं त्वया प्रियवयस्यस्य विनीतत्वम्। तया भणितम् - नैवंविधेष महापुरुषेषु विनय आश्चर्यमिति । ततः काञ्चिद् वेलां गमयित्वा प्रवृत्ताऽनङ्गसुन्दरी । दत्त स्तस्यै मया भवनसारः कण्ठकः । ततः प्रहृष्टवदनकमला सम्पन्ना: स्वामिन्या मनोरथाः' इति चिन्तयन्ती भणिता चैषा-सुन्दरि'! स्वं ते गेहमेतद् तत इहागमनेन खेदो न कर्तव्य इति । ततो 'यत्कुमार आज्ञापयति' इति भणित्वा गताऽनङ्गसुन्दरी । प्रवर्धमानानुरागयोरतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः।।
अन्यदा च राजकुलाद् निर्गच्छन् भणितोऽहं चेटिकया-कुमार ! महाराजपत्नी अनङ्गगवती और लेपनयुक्त पान को हाथ में लेकर अनंगसुन्दरी आयी। उसने कहा- 'कुमार ! स्वामिनी ने निवेदन किया है-इन अपने हाथों से गूंथे गये सिन्दुवार (निर्गुगडी) के फूलों (माला) को आर्यपुत्र अवश्य ही धारण करें। तब इस प्रस्ताव के द्वारा मेरा इष्टकार्य सम्पन्न हो गया-ऐसा सोचकर 'देवी की जैसी आज्ञा'-कहकर फूलों की माला ले ली, सिर पर धारण कर लिया। विलेपन किये हुए होने पर भी प्रियतमा के प्रति आदर के कारण अपना फिर से लेप कर लिया, विलेपन पूरा कि बिना ही पान खाया। इसी बीच वसुभूति ने कहा'अनंगसुन्दरी, तुमने प्रिय मित्र की विनय देखी !' उसने कहा-'इस प्रकार के महापुरुषों में विनय का होना आश्चर्य की बात नहीं है।' तब (वह) कुछ समय बिताकर प्रस्थान करने लगी। मैंने उसके लिए भुवनसार नामक कण्ठाभूषण दिया। अनन्तर 'मेरी स्वामिनी का मनोरथ पूर्ण हो गया'-ऐसा विचारती हुई प्रसन्न मुखकमल वाली अनंगसुन्दरी से कहा ...'सुन्दरी ! यह घर तुम्हारा ही है, अतः यहाँ आने से चिन्तित न होना।' तब 'जैसी कुमार की आज्ञा'-ऐसा कहकर अनंगसुन्दरी चली गयी। इन दोनों का परस्पर अनुराग बढ़ते हुए कुछ दिन बीत गये।
एक बार राजमहल से निकलते हुए मुझसे दासी ने कहा-'कुमार ! महाराज की पत्नी अनंगवती कहती हैं
१, संपाइयं-ख, २. पुन्वविलित्तो संतो-ख, ३. बहुमाणो -ख, ४. अणंगमती-ख ।
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