SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ समराइच्च कहा ता इहागच्छउ कुमारो' ति । तओ वीसत्थयाए महारायस्य 'अंबाए वि आणासंपायणे न उवरोहो' त्ति भणिऊण पयट्टो अणंगवईसमीवं' । दुवारपवेसे य फुरियं मे वामलोयणेणं, उवरोहसीलयाए तहवि य पविट्टो अहयं । दिट्ठाय सा मए वामकरयलपणामियं परिमलियकवोलपत्तलेहं वयणकमलमुव्वहंती पणमिया सायरं । अपरिफुडक्खरं च 'कुमार सरणागया, परित्तायाहि" त्ति जंपियं तीए । मए भणियं - अंब, कुओ भयं । तओ मयणवियारनिब्भराए दिट्ठीए मं पुलोइऊण' भणियं तोएकुमार, अगंगाओ । जयप्पभिइ दिट्ठो मए मंदिरुज्जाणाओ निग्गच्छमाणो तुमं, तयप्पभिइ पंचबाणो वि मयणो ममं चित्तलक्खे दसबाणकोडी संवृत्तो । ता हियएण समप्पियं नियगुणेहिं संदामियं अणुराएण धारिय मयणबाणेहिं सल्लियं निव्ववेहि मे सरीरं अत्तणोवओगेण । ते य सत्तिमंता पुरिसा, जे अब्भत्थणावच्छला, समावडियकज्जा न गर्णेति आयई, अब्भुद्धरेंति दीणयं, पूर्णेति परमणोरहे, " रक्खति सरणागयं । ता रक्खेहि मं इमाओ अगंगाओ ति । तओ एयामायण्णिऊण ताडिओ विय अविरिण भिन्नो विय सूलेणं समाहओ विय मम्मेसु मुच्चमाणो विय जीविएणं महंतं दुक्खभति 'यदि नातीवोपरोधस्तत इहागच्छतु कुमार' इति । ततो विश्वस्तया महाराजस्य 'अम्बाया अप्याज्ञासम्पादने न उपरोध:' इति भणित्वा प्रवृत्तोऽनङ्गवतीसमीपम् । द्वारप्रवेश च स्फुरितं मे वाम लोचनेन, उपरोधशोलतया तथाऽपि च प्रविष्टोऽहम् । दृष्टा च सा मया वामकरतलार्पितं परिमर्दितकपोलपत्रलेखं वदनकमलमुद्वहन्तो प्रणता सादरम् । अपरिस्फुटाक्षरं च ' कुमार ! शरणागता, परिश्रायस्व' इति जल्पितं तथा । मया भणितम् - अम्ब ! कुतो भयम् ? ततो मदनविकारनिर्भरया दृष्ट्या मां दृष्ट्वा भणितं तया - कुमार ! अनङ्गात् । यत्प्रभृति दृष्टो मया मन्दिरोद्यानाद् निर्गच्छन् त्वम्, तत्प्रभृति पञ्चबाणोऽपि मदनो मम चित्तंलक्षे दशवाणकोटिः संवृत्तः । ततो हृदयेन समर्पित निजगुणैः सन्दामितं ( बद्धं) अनुरागेण धारितं मदनबाणैः शल्यितं निर्वापय मे शरीरमात्मोपयोगेन ते च र्शा तमन्तः पुरुषा येऽभ्यर्थनावत्सलाः समापतितकार्या न गणयन्त्यायतिम्, अभ्युद्धरन्ति दीनम्, पूरयन्ति परमनोरथान्, रक्षन्ति शरणागतम् । ततो रक्ष मामस्मादनङ्गादिति । तत एवमाकर्ण्य ताडित इवाश निवर्षेण भिन्न इव शूलेन, समाहत इव मर्मसु मुच्यमान इव जीवितेन महान्तं दुःखमनु 1 , कि यदि कुमार को कोई विघ्न न हो तो कुमार यहाँ आयें। तब महाराज के विश्वास से 'माता की आज्ञा पालन करने में भी कोई विघ्न नहीं है' ऐसा कहकर अनंगवती के यहाँ गया। प्रवेश-द्वार पर मेरी बायीं आँख फड़कने लगी । इस प्रकार बाधा उपस्थित होने पर भी मैं प्रविष्ट हो गया। मैंने, गालों की पत्रलेखा को रगड़कर मिटाते हुए, बायीं हथेली पर रखे हुए मुखकमल को धारण करने वाली तथा आदरपूर्वक प्रणाम करने वाली उस राजपत्नी को देखा । उसने अस्पष्ट अक्षरों में 'कुमार ! मैं शरणागत हूँ, बचाओ' - ऐसा ( मुझसे ) कहा । मैंने कहा -- 'माता ! किससे भय है ?' तब काम के विकारों से भरी हुई दृष्टि से मुझे देखकर उसने कहा- 'कुमार ! कामदेव से ।' जब से मैंने मन्दिर के उद्यान से तुम्हें निकलते हुए देखा, तब से मेरे चित्तरूपी लक्ष्य में पाँच बाणों वाला भ कामदेव दस बाणों वाला हो गयः । अतः हृदय से समर्पित, निजगुण से बद्ध, अनुराग धारण की गयी, मदनीबाणों से विद्ध मेरे शरीर का उपयोग कर आप उसे शान्ति प्रदान करें। वे पुरुष शक्तिमान हैं जो कि प्रार्थना के प्रति प्रेम दिखाने वाले हैं। कार्य आ पड़ने पर भावीफल की गणना नहीं करते हैं, दोनों का उद्धार करते हैं, दूसरों के मनोरथ को पूरा करते हैं, शरणागतों की रक्षा करते हैं अतः मेरी इस कामदेवसे रक्षा कीजिए ।' तब इसे सुनकर मानो वज्र की वर्षा से ताड़ित हुआ, शूल से छेदा गया, मर्म पर चोट पहुंचाया हुआ, जीवन को छोड़ता हुआ १. मतिख २ पणामियं - अर्पितम् ३. परितायह त्ति-ख, ४. पलोइऊण - क, ५. पण इमणो रहेक, ६. विवख, ७. असिणि ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy