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[ समराइचकहा १०. उत्तराध्ययन सूत्र का मृगापुत्र आख्यान हरिभद्र को अपने पात्रों को विरक्ति की ओर ले जाने में प्रेरक हुआ होगा।
११. समराइच्चकहा के नवम भव की कथा में समरादित्य अपने माता-पिता की प्रसन्नता के लिए विभ्रमवती और कामलता नामक दो युवतियों से विवाह कर लेता है पर उन दोनों को आध्यात्मिक उपदेश देकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत दे देता है । इस सन्दर्भ का स्रोत महाभारत के शान्तिपर्व में आये हुए श्वेतकेतु
और सुवर्चला के विवाह को मान सकते हैं । श्वेतकेतु विवाह के अनन्तर सुवर्चला को आध्यात्मिक उपदेश देता है और इन्द्रियविजयी होने के लिए कहता है।।
१२. समराइच्चकहा के नवें भव में कुमार समरादित्य बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के दृश्य देखकर विरक्त हो जाता है । निदानकथा के अनुसार भगवान बुद्ध को भी कुमारावस्था में तीनों दृश्य दिखाई दिये थे, जिससे उनका मन संसार से विरक्त हो गया था ।
१३. हरिभद्र के नारिकेल वृक्ष के समान सोमदेव के कथासरित्सागर में (जो गुणाढ्य का बृहत्कथा का संस्कृत रूपान्तर है) एक विशाल वटवृक्ष का वर्णन आया है। इस वृक्ष की जड़ों में धननिधि के रहने की बात कही गयी है।
१४. मृच्छकटिक के चारुदत्त और समराइच्चकहा के महेश्वरदत्त में पर्याप्त साम्य है।
१५. समराइच्चकहा के एक प्रसंग में शान्तिमती अपने पति के वन में मिलने से दुःखी होकर अशोक वृक्ष में लताओं का पाश बनाकर फांसी लगाने का प्रयास करती है । उक्त कथानक का स्रोत रत्नावली में सागरिका द्वारा लतापाश से फांसी लगाकर मरने की तैयारी रूप घटना हो सकती है।
१६. समराइच्चकहा के समुद्र, वन, नदी, पर्वत, नगर और प्रासादों के वर्णन की पद्धति का स्रोत कादम्बरी को माना जा सकता है।
समराइच्च क हा के अनुसार आचार्य हरिभद्र'
हरिभद्र को जन्म भूमि-भद्रेश्वर की कहावली (लगभग बारहवीं शती) में आचार्य हरिभद के जन्मस्थान का नाम 'पिवंगुई बभपुणी' कहा गया है । अन्य ग्रन्थों में उनका जन्म-स्थान चित्रकूट-चित्तौड़ कहा गया है। पं० सुखलाल जी संघवी ब्रह्मपुरी को चित्तौड़ के आसपास का ही एक कस्बा या नगर का ही एक भाग मानते हैं । चित्तौड़ की सूचना देने वाले ग्रन्थों में उपदेश पद की मुनि चन्द्रसूरिकृत टीका (वि० सं० ११७४), गणधरसार्धशतक की सुमतिगगिकृत वृत्ति (वि० सं० १२९५), प्रभाचन्द्रकृत प्रभावकचरित्र (वि० सं० १३३४) तथा राजेश्वरसूरिकृत प्रबन्धकोश (वि० सं० १४०५) इत्यादि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं।
माता-पिता-हरिभद्र के माता-पिता का नाम केवल 'कहावली' में ही उपलब्ध होता है। उसमें माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट कहा गया है । भट्ट शब्द ही सूचित करता है कि वह जाति से .. ब्राह्मण थे।
समय --आचार्यश्री जिनविजय जी ने हरिभद्र का जीवनकाल वि० सं० ७५७ से ८२७ तक निर्धारित किया है । इस निर्णय पर आने के अनेक प्रमाणों में से एक विशेष उल्लेखनीय प्रमाण उद्योतनसूरि
१. आचार्य हरिभद्र के सम्बन्ध में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' (ले,
पं. सुखलाल जी संघवी) ग्रन्थ देखिए ।
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