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भूमिका ]
(उपनाम-दाक्ष्यचिह्न) कृत कुवलयमाला की प्रशस्ति गाथाएं हैं। उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला की समाप्ति का समय एक दिवस न्यून शक संवत् ७०० अर्थात् शक संवत ७०० की चैत्र कृष्ण चतुर्दशी लिखा है और उन्होंने अपने प्रमाण-न्यायशास्त्र के विद्यागुरु के रूप में हरिभद्र का निर्देश किया है । इस समय के साथ पूरी तरह से मेल खाने वाले अनेक ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के उल्लेख हरिभद्र के विविध ग्रन्थों में मिलते हैं और इससे हरिभद्र का उपरिनिर्दिष्ट सत्ता-समय निर्विवाद सिद्ध होता है।' .
हरिभद्र का जीवन-कहावली में प्राप्त विवरण के अनुसार हरिभद्र एक ब्राह्मण-पूत्र थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह जिसका कथन नहीं समझ सकेंगे, उसके शिष्य हो जायेंगे। एक समय हरिभद्र चित्तौड़ आये । वहाँ जिनदत्ताचार्य के संघ में याकिनी नाम की एक साध्वी रहती थी । एक दिन हरिभद्र ने उसके मुख से निम्नलिखित गाथा सुनी
चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कोण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४२७ हरिभद्र उपर्युक्त गाथा का अर्थ न समझ सके । उन्होंने साध्वी से उस गाथा का अर्थ पूछा तो वह अपने गुरु के पास ले गयी। गुरु जिनदत्ताचार्य ने गाथा का अर्थ समझाया । हरिभद्र ने अपनी प्रतिज्ञा की बात कही। आचार्य ने साध्वी का धर्मपुत्र हो जाने के लिए कहा। हरिभद्र ने धर्म का फल पूछा । आचार्य ने कहा कि सकामवृत्ति वालों के लिए स्वर्ग-प्राप्ति और निष्काम कर्म वालों के लिए भवविरह धर्म का फल है । हरिभद्र ने भवविरह की इच्छा प्रकट की और जिनदत्ताचार्य ने उन्हें जिनदीक्षा दे दी । हरिभद्र के जिनभद्र और वीरभद्र नाम के दो शिष्य थे। उस समय चित्तौड़ में बौद्ध मत का प्राबल्य था और बौद्ध हरिभद्र से ईर्ष्या करते थे। एक दिन बौद्धों ने हरिभद्र के दोनों शिष्यों को एकान्त में मार डाला । यह सुनकर हरिभद्र को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अनशन करने का निश्चय किया। प्रभावक पुरुषों ने उन्हें ऐसा करने से रोका
और हरिभद्र ने ग्रन्थराशि को ही अपना पुत्र मान उसकी रचना में चित्त लगाया। ग्रन्थ-निर्माण और लेखनकार्य में जिनभद्र वीरभद्र के काका लल्लिक ने बहुत सहायता की। हरिभद्र जब भोजन करते थे तब लल्लिक शंख बजाता था। उसे सुनकर बहुत से याचक एकत्र हो जाते थे। हरिभद्र उन्हें 'भवविरह करने में प्रयत्न करो' कहकर आशीर्वाद देते थे। इससे हरिभद्र सूरि भवविरहसूरि के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। अपनी कृतियों के अन्त में उन्होंने विरह मुद्रा का प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ, समराइच्चकहा के अन्त में निम्नलिखित पंक्तियाँ हैं, जिनमें 'भवविरह' शब्द का प्रयोग किया गया है
वक्खायं जं भणियं समराइच्चकहा गिरिसेण पाणो उ । एक्कस्स तओ मोक्खोऽणंतो वीयस्स संसारो ॥ गुरुवयणपंकयाओ सोऊण कहाणयानुराएण । अनिउणमइणा वि वढं बालाइ अणुग्गहट्ठाए । अविरहियनाणसणचरियगुणवरहस्स विरइयं एवं । जिनदत्तायरियस्स उ सोसाणवयवेण चरियं ति ॥
१. समदर्शी आचार्य हरिभद्र , पृ. ८-९ 2. न्यायकुमुदचन्द्र (प्रस्तावना) भाग-१, पृ. ३३. "
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