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पंचमो भयो]
४३३ ठिओगय गमग । तओ आसन्नीहूयं अगंगरइबलं । पुच्छि भो मए परबलराईणं नामाइं अमियगई। भणियं च तेण-देव तुंडे ठिओ सपडवूहस्स कंचणदाढो, वामपासे असोओ, दक्खिणे कालसीहो', मझे विरूवो, पिट्ठओ अणंगरई । तओ परबलदंसणपहढं पयलियं चंडसीहबलं । पुरओ से ठियं जुद्धसज्जं कंचणदाढसेन्नं । तओ वज्जंतसमरतरं वग्गंतविज्जाहरं उग्घोसिज्जंतपुवपुरिसगोत्तं मच्चतसोहनायं सन्भवडियं जुद्धं । तत्थ खलसमिद्धीओ विय अहयाओ निवडंति भल्लीओ, कालरत्ति दिठ्ठिसन्निगासा' अइंति नाराया जममहिमसिंगतुल्लाओ पडंति गयाओ, लहुइयअसणिमाहप्पा' वियंभंति मोग्गरा, अद्ध चंदछिन्नाणि उप्पायमंडलाणि विय गलंति आयवत्ताणि । तओ सोणि रसित्तमहियलं विज्जाहरसीससंकुलं बहुपडियकबंधभीसणं निबडमाणपहरणसद्दालं सन्नाहनिवडियासिसंभूयहुयवहजालाउलं च जायं महासमरं ति । लग्गा दो वि नायगा। असिसत्तिकंतचक्केहि आवडियं पहाणजद्धं । तओ कंचि वेलं जज्झिऊण विसण्णो चंडसीहो आहओ कंचणदाढेण निडालवढे खग्ग रयणेण, निवडिओ य एसो। उठ्ठिओ अणंगरइबले विसमतूरनिग्घोससणाहो उद्दामकलयलो। भग्गंपरिवतः स्थितो गगनमार्गे। तत आसन्नीभूतमनङ्गरतिबलम् । पृष्टो मया परबलराजानां नामानि अमितगतिः । भणितं च तेन-देव !तुण्डे (मुखे) स्थितः शकटव्यहस्य काञ्चनदंष्ट्रः, वाम पार्वेऽशोकः, दक्षिणे कालसिंहः, मध्ये विरूपः, पृष्ठतोऽनङ्गरतिः । ततः परबलदर्शनप्रहृष्टं प्रचलितं चण्डसिंहबलम् । पुरतस्तस्य स्थितं युद्धसज्जं काञ्चनदंष्ट्रसैन्यम् । ततो वाद्यमानसमरतूर्ये ल्गद्विद्याधरम उद्घोष्यमानपूर्वपुरुषगोत्रं मुच्यमानसिंहनादं समापतितं युद्धम् । तत्र खलसमद्धय इवासुखदा निपतन्ति भल्ल्यः, कालरात्रिदृष्टिसन्निकाशा आयान्ति नाराचाः, यममहिषशृङ्गतुल्याः पतन्ति गदाः, लघुकृताशनिमाहात्म्या विज़म्भन्ते मुद्गराः, अर्धचन्द्रछिन्नानि उत्पातमण्डलानीव गलन्ति आतपत्राणि । ततः शोणितसिक्तमहीतलं विद्याधरशीर्षसंकलं बहुपतितकबन्धभीषणं निपतत्प्रहरणशब्दवत् सन्नाहनिपतितासिसम्भूतहुतवहज्वालाकुलं च जातं महासमरमिति । लग्नौ द्वावपि नायको। असि-शक्ति-कुन्त-
चरापतितं प्रधानयुद्धम् । ततः काञ्चिद् वेलां युवा विषण्णश्चण्डसेन आहतः काञ्चनदंष्ट्रेण ललाटपट्ट खड्गरत्नेन, निपतितश्चैषः । उत्थितोऽनङ्गरतिबले विषमतूर्यनिस्थित हो गया। अनन्तर अनंगरति की सेना आ गयी। मैंने शत्रु-सेना के राजाओं के नाम अमितगति से पूछे । उसने कहा-'महाराज ! शकटव्यूह के मुख पर कांचनदंष्ट्र स्थित है, बायीं ओर अशोक, दक्षिण की ओर कालसिंह, बीच में विरूप और पीछे अनंगरति स्थित है । अनन्तर शत्रु-सेना को देख हर्षित हुई चण्डसिंह की सेना चल पड़ी। उसके सामने युद्ध के लिए सजी कांचनदंष्ट्र की सेना थी। अनन्तर युद्ध शुरू हो गया। उस समय युद्ध के बाजे बजाये जा रहे थे, विद्याधर उछल रहे थे। पूर्व पुरुषों के नामों की घोषणा हो रही थी तथा सिंहनाद किया जा रहा था । वहाँ पर दुष्टजनों की समृद्धि के समान दुःखदायी भाले गिर रहे थे । कालरात्रि के नेच के समान बाण आ रहे थे। यम के भैंसे के सींगों के समान गदाएँ पड़ रही थीं। वज के माहात्म्य को तिरस्कृत करते हुए मुद्गर बढ़ रहे थे । आधे चन्द्रमा के समान टूटे उत्पात-मण्डल के समान छत्र गिर रहे थे । अनन्तर बहुत बड़ा युद्ध हुआ । उसमें रक्त से धरती सींची गयी थी। वह युद्धक्षेत्र विद्याधरों के सिरों से व्याप्त था । बहुत से गिरे हुए धड़ों से भयंकर था और गिरी हुई गाड़ी के शब्द के समान कवच पर पड़ी हुई तलवार से उत्पन्न अग्नि की ज्वालाओं (चिनगारियों) से व्याप्त था। दोनों नायक युद्ध करने में लग गये । तलवार, शक्ति, भाला और चक्रों से प्रधान युद्ध हुआ । कुछ समय युद्ध कर कांचनदंष्ट्र के द्वारा खड्गरत्न से मस्तक पर आघात पहुंचाया हुआ चण्डसिंह आहत हो गया और गिर गया। भयंकर बाजों के शब्द के साथ अनंगरति की सेना में उत्कट
१, कालजीहो-ख । २. ""संगासा-क । ३. लघुइयास"-क।
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