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________________ [समका तओ मए भणियं - ताडेह समरसन्नाहभरि आएससमणंतरं च ताडिया समरभासुरेण । सा य कुवियकत हुंकारसन्निहा वज्जपहारफुट्ट तगिरिसद्दभीसणा पलयज नयणायसरिसं गज्जिउं पवत्ता । समरसाहसरसियाणं च समुट्टओ कलयलरवो विज्जाहर भडाणं । तओ नीयमाणविलेवर्ण' दिज्जमाणसुरहिकुसुममालं पिज्जमानपवरासवं हसिज्ज माणवल्लहं संमाणिज्जमागसुहडं आलोइज्ज माणसन्निज् वणिज्ज माणपडिवक्खं सज्जिज्जमानविमाणं उब्भिज्जमाणभडइंधं दिज्जमाणपडायं पलं बिज्ज माणचामरं वज्झमाणकिणीजालं रइज्जमाणवूहविसेसं मंडिज्माणायवत्तं संपाडिज्जमाणगमणमंगलं उग्घो सिज्जमा गजयजयसद्दं सुणिज्जमानपुण्णाहघोस आबूरिज्जमाणरायंगणं पवट्टमाणकलयलं पहाव परियणं अम्हाणं पि सन्नद्धं बलं ति । उप्पइया विज्जाहर भडा, पर्यालियाणि विमाणाणि, निवेसिया पउमवू हरयणा । ठिओ वूहस्स अग्गओ चंडसीहो, वामपा से समरसेणो, दक्खिणेण देवोस हो, पछिमेण मयंगो, मज्झे पिगलगंधारो । अहं पिय विसाणारूढो वाउवेगप्यमुदिज्जाहर राय परियओ ४३२ ततो मया भणितम् ताडयत समरसन्नाहमेरोम् । आदेशसमनन्तरं च ताडिता समरभासुरेण । सा च कुपितकृतान्तहुङ्कारसन्निभावज्रप्रहारस्फुट गिरिशब्दभीषणा प्रलयजलदनादसदृशं गर्जितुं प्रवृत्ता । समरसाहस रसिकानां च समुत्थितः कलकलरवो विद्याधरभटानाम् । ततो नीयमानविलेपनं दीयमानसुरभिकुसुममालं पीयमानप्रवरासवं हास्यमानवल्लभं सम्मान्यमानसुभटम् आलोक्यमानसान्निध्यं वर्ण्यमानप्रतिपक्षं सज्यमानविमानम् उद्भिद्यमानभटचिह्न दीयमानपता कं प्रलम्ब्य मानचामरं बध्यमानकिङ्किणीजालं रच्यमानव्यूहविशेषं मण्ड्यमानातपत्रं सम्पाद्यमानगमनमङ्गलम् उद्घोष्यमानजय जयशब्दं श्रूयमाणगुण्याह (वाद्य) घोपम् आपूर्यमाणराजाङ्गणं प्रवर्तमानकलकलं प्रधावमानपरिजन मस्माकमपि सन्नद्धं बलमिति । उत्पतितः विद्याधरभटाः, प्रचलितानि विमानानि निवेशिता पद्मव्यूहरचना । स्थितो व्यहस्याग्रतश्चण्डसिंहः, वामपार्श्वे समरसेनः, दक्षिणेन देवर्षभः पश्चिमेन मतङ्गः, मध्ये पिङ्गलगान्धारः । अहमपि च विमानारूढो वायुवेगप्रमुख विद्याधरराज अनन्तर मैंने कहा - 'युद्ध करने की भेरी बजाओ !' आदेश के अनन्तर समर को द्योतित करने वाली भेरी बजायी गयी । वह भेरी कुपित यम के हुंकार के समान वज्र के प्रहार से फटे हुए पर्वतों के शब्द के समान और प्रलयकाल के मेघों के शब्द के समान गरजने लगी । युद्ध में साहस दिखलाने के रसिक विद्याधर योद्धाओं का कलकल शब्द उठा । अनन्तर हमारी भी सेना सन्नद्ध हो गयी। उस समय विलेपन लाये जा रहे थे, सुगन्धित फूलों की मालाएँ दी जा रही थीं, उत्कृष्ट मद्य पिया जा रहा था, प्रेमी हँस रहे थे, योढाओं का सम्मान किया जा रहा था । सान्निध्य दिखाई दे रहा था, प्रतिपक्ष का वर्णन किया जा रहा था, विमान सजाये जा रहे थे, योद्धाओं के चिह्न प्रकट हो रहे थे, पताकाएँ फहरायी जा रही थीं, चंवर लटकाये जा रहे थे, कंगन का समूह बांधा जा रहा था। व्यूह विशेषों की रचना की जा रही थी, छत्रों की शोभा की जा रही थी, प्रयागकालीन मंगल किया जा रहा था। 'जय जय' शब्द की घोषणा की जा रही थी, पुण्याह नामक वाद्य का शब्द सुनाई दे रहा था। राजा का आँगन भरा जा रहा था, कलकल शब्द हो रहा था और सेवक दौड़ रहे थे । विद्याधर योद्धा उड़े, विमान चले, कमलव्यूह की रचना की गयी । व्यूह के आगे चण्ड सिंह खड़ा हो गया, वायीं ओर समरसेन, दाहिनी ओर देवर्षभ, पश्चिम की ओर मतंग और बीच में पिंगल गान्धार खड़े हो गये। मैं भी विमान पर आरूढ़ हुआ वायुवेग प्रमुख विद्याधर राजाओं से घिरा होकर आकाश मार्ग में १. समररसहरितियागं क । २ दी माण ... ३. अलोनिजमनि । ४ । पुष्पुयविसेसं५. पुन्नाह निधो का ६. वायुवेगक, ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only - ख । www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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