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________________ बोलो भयो] जोव्वणमणुवम सोहं कलाकलावपरिवड्ढियच्छायं । जणमणनयणानंद चंदो व्व कमेण संपत्तो ॥ १२० ॥ अन्नयाय संपत्तजोव्वणस्स कुसुमचावस्स विहिय् याणुकूलो तरुणजणहिययाणंदयारी आगओ वसंतसमओ । जत्थ सविसेसं कुसममय कोदंड मंडली संधिय सिलीमुहो रडं दंसिऊण जर्णाहिययाइं विधिउं पयत्तो प्रयणो । अनंतरं च तस्स चेव जयजयसद्दो व्व कोइलाहिं कओ कोलाहलो, विरहग्गज्झतपहियसंघायधूमपडलं व दियंभियं सहयारेसु भमरजालं, गयवइयामसाणजलणेहि विव पत्तिं दिसामंडलं किसूयकुसुमेह ति । तओ एवंविहे वसंतसमए सो सीहकुमारो अणेयतरुणजणवेदिओ महाविभूईए केलिनिमित्तं गओ पमुइयपर हुयासद्दजणियत रुणीजणचित्तविन्भमुल्लोलं सुरहिमलयपवणपणच्चाविय कुसुमभरभज्जमान लयाविडविजालं मय मुइय महल महुयरकुलोवगीयमाणग्गसोहं वासहरं पिव वसंतलच्छीए कोलासुंदरं नाम उज्जाणं, पवत्तो य कौलिउँ विचित्तकाहि ति । दिट्ठाय तेण तत्थ उज्जाणे नाइदूरदेससंठिया कुसुमपरिमल सुगंध वेणि महुयरावली यौवनमनुपमशोभं कलाकलापपरिवर्धित छायं । जनमनोनयनानन्दं चन्द्र इव क्रमेण सम्प्राप्तः ॥ १२० ॥ अन्यदा च सम्प्राप्तयौवनस्य कसुमचापस्यापि हृदयानुकूलः तरुणजनहृदयानन्दकारी आगतो वसन्तसमयः । यत्र सविवेशं कुसुममय कोदण्डमण्डलीसन्धितशिलीमुखो रति दर्शयित्वा जनहृदयानि व्यद्धं प्रवृत्तो मदनः । अनन्तरं च तस्यैव जयजयशब्द इव कोकिलाभिः कृतः कोलाहलः, विरहाग्निदह्यमानपथिकसंघात धूमपटलमिव विजृम्भितं सहकारेषु भ्रमरजालम् । गतपतिकाश्मशानज्वलनैरिव प्रदीप्त दिग्मण्डलं किंशुककुसमैरिति । तत एवंविधे वसन्तसमये स सिंहकुमारोSeaरुणजनवेष्टितो महाविभूत्या केलिनिमित्तं गतः प्रमुदितपरभृताशब्दजनिततरुणीजनचित्तविभ्रमोल्लोलं सुरभिमलयपवनप्रनर्तित कुसुमभरभज्यमानलताविटपिजालं मदमुदितमुख रमधुकरकुलोपगीयमानाग्रशोभं वासगृहमिव वसन्तलक्ष्म्याः क्रीडासुन्दरं नामोद्यानम्, प्रवृत्तश्च क्रीडितुं विचित्रक्रीडाभिरिति । दृष्टा च तेन तत्रोद्याने नातिदूरदेश संस्थिता कुसुमपरिमल सुगन्धवेणी जिसकी ज्योत्सना बढ़ती जा रही है, जो लोगों के मन और नेत्रों के लिए आनन्दप्रद है, उस चन्द्र की तरह क्रमशः यौवन प्राप्त किया। वह यौवन अनुपम शोभायुक्त, कलाओं के कारण विशेष आकर्षक तथा जन-जन के मन और नयनों के लिए आनन्ददायी था ।। १२० ।। एक बार योवन को प्राप्त हुए कामदेव के भी हृदय के अनुकूल तरुण पुरुषों के हृदय को आनन्द पहुँचाने वाला वसन्तकाल आ गया। जहाँ पर लोगों के हृदय को वेधने के लिए रति को दिखलाकर पुष्पमयधनुष की सन्धि पर भ्रमररूपी बाणों को चढ़ाये हुए प्रविष्ट होता हुआ कामदेव प्रवृत्त हुआ । अनन्तर उसी ( वसन्त) के ही जयजय शब्द के समान कोयलों ने कोलाहल किया । विरहरूपी अग्नि से जलते हुए पथिकों के समूह से, धुएँ के समूह के समान आमों पर भ्रमर समूह वृद्धि को प्राप्त हुआ । स्वामी से बिछुड़ी हुई स्त्रियों की श्मशान की-सी (विरह) अग्नि के समान दिशामण्डल पलाश के फूलों से प्रदीप्त हो उठा। ऐसे वसन्त समय में अनेक युवकों से घिरा हुआ महान् विभूति से युक्त राजकुमार सिंह क्रीड़ा के लिए क्रीड़ासुन्दर नामक उद्यान में गया । वह उद्यान आनन्दित होती हुई कोयलों के शब्द से तरुण स्त्रियों के चित्त में विलास की चंचलता उत्पन्न कर रहा था, सुगन्धित मलयानिल से नाचती हुई और पुष्पों के भार से झुकी हुई लताओं और वृक्षों से युक्त था तथा मद से प्रसन्न, गुंजार करते हुए भींरों के समूह से उसकी श्रेष्ठ शोभा का गान किया जा रहा था। वह मानो वसन्तरूपी लक्ष्मी का निवासस्थल था । वहाँ पर वह नाना प्रकार की कीड़ाओं के करने में प्रवृत्त हुआ । उसने उस उद्यान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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